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Wednesday, August 3, 2011

प्रेरक कलाम- “आई एम कलाम”



पिछले दिनों बच्चों पर केंद्रीत फिल्म चिल्लर पार्टी और उसके पहले स्टेनली का डिब्बा चर्चा में रही। इस सूची में एक और नाम है- ‘आई एम कलाम’। नील माधव पंडा द्वारा निर्देशित इस फिल्म को पहले ही कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं।

फिल्म की कहानी राजस्थान के एक गरीब परिवार के बच्चे छोटू (हर्ष मायर) के इर्द-गिर्द घूमती है। गरीबी की वजह से बच्चे की मां (मीना मीर) उसके लिए काम की तलाश करती है और छोटू को भाटी मामा (गुलशन ग्रोवर) के ढाबे पर काम करने के लिए छोड़ जाती है। बच्चा आते ही ढाबे के मालिक के ऊंटनी के पैर का जख्म जड़ी-बूटियों की मदद से ठीक कर देता है। भाटी बच्चे के काबिलियत से खुश होता है लेकिन छोटू को लैप्टन (पितोबास) के अधीन काम करना होता है और वह उस पर हुकुम चलाना चाहता है। लैप्टन अमिताभ का फैन है लेकिन जब रात को सोने की बारी आती है तो वह छोटू को बाहर सोने को कहता है। छोटी अपनी समझदारी से उसकी खाट पर सो रहा होता है और लैप्टन खाट के नीचे। क्योंकि छोटू की मां भी कहती है “उसका दिमाग रेल भी तेज चलता है।”

भाटी के ढाबे के पास एक महल है जिसके आधे हिस्से में एक राजपरिवार रहता है और आधा हिस्सा हैरिटेज होटल के रूप में है। होटल में रहने वाले लोगों के लिए खाना-नाश्ता भाटी के ढाबे से जाता है। छोटू को होटल में खाना पहुंचाने का जिम्मा मिलता है। इसी दौरान छोटू राजपरिवार के इकलौते प्रिंस रणविजय (हुसैन साद) से दोस्ती करता है।

एक दिन छोटू टेलीविजन पर गणतंत्र दिवस की परेड देख रहा होता है और वह अब्दुल कलाम को देखता है। वह उनसे प्रभावित होता है और अपना नाम कलाम रख लेता है। वह राष्ट्रपति से मिलना चाहता है। ढाबे पर आने वाली एक फ्रांसिसी महिला लूसी (बिट्राइस ऑरडिक्स) से भी छोटू दोस्ती करता है और उससे फ्रेंच सीखता है। वह प्रिंस से पढ़ना सीखता है और बाद में प्रिंस के लिए एक भाषण लिखता है। उस भाषण पर प्रिंस को पुरस्कार मिलता है लेकिन पैलेस के कारिंदे कलाम के कमरे की तलाशी लेकर प्रिंस के कपड़े-किताबें पाकर उसकी पिटाई करते हैं, उसे चोर घोषित करते हैं और उसे यहां से दूर चले जाने का फरमान सुनाया जाता है।

छोटू एक ट्रक पर सवार होकर दिल्ली पहुंचता है और राष्ट्रपति से मिलना चाहता है। उसे गार्ड इंट्री नहीं देते हैं। उधर जैसे ही प्रिंस को छोटू के चले जाने की बात पता चलती है, वह अपने पिता को बताता है कि छोटू चोर नहीं है, और सारी चीजें उसने खुद दी थी। प्रिंस के पिता को गलती का एहसास होता है और लूसी मैडम के साथ प्रिंस छोटू को खोजने दिल्ली पहुंचता है। छोटू इंडिया गेट के पास मिल जाता है। उसे वापस लाया जाता है और छोटू भी प्रिंस के स्कूल में पढ़ने लगता है।

हर्ष मायर ने फिल्म में छोटू की भूमिका में जान डाल दी है। संजय चौहान के डॉयलाग्स राजस्थानी बोली में खासे प्रभावी हैं। सत्तासी मिनट की फिल्म में संदेश है- कर्म और किस्मत के द्वंद्व के बीच कर्म बड़ा होता है। हर बच्चा बड़े सपने देख सकता है। यह फिल्म ढाबे में काम करने वाले उन हजारों बच्चों का प्रतिनिधित्व करती है जो गरीबी की वजह से पढ़ाई नहीं कर पाते और उनके लिए प्रेरणास्रोत कलाम जैसा व्यक्तित्व होता है। स्माइल फाउंडेशन की इस शानदार प्रस्तुति में एक-एक पात्र अपने चरित्र के साथ न्याय करते दिखते हैं।

Thursday, July 21, 2011

छोटे शहरों में एफएम का तराना


मिथिलेश कुमार

केंद्र सरकार ने एफएम रेडियो को छोटे शहरों तक पहुंचाने के लिए लाइसेंस देने को हरी झंडी दे दी है। एफएम के विस्तार के तीसरे चरण में 227 शहरों में 839 नए एफएम स्टेशन खुलेंगे, जिसके लिए बोली लगाने का प्रस्ताव है। फिलहाल देश के 86 शहरों में 248 एफएम स्टेशन हैं। छोटे शहरों में एफएम का विस्तार क्या मायने रखता है? एफएम का दायरा बढ़ाने के क्या फायदे होंगे? और क्या छोटे शहरों में एफएम के लिए कुछ चुनौतियां भी होंगी?

हाल ही में कैबिनेट की बैठक में सूचना प्रसारण मंत्रालय के ‘निजी एजेंसियों के जरिए एफएम रेडियो प्रसारण सेवाओं के विस्तार संबंधी नीतिगत दिशा निर्देशों के तीसरे चरण के प्रस्ताव’ को मंजूरी दी गयी है, उसमें दो बातें प्रमुख है। पहली, एफएम को तीसरे चरण में एक लाख तक की आबादी वाले शहरों तक पहुंचाया जाएगा। दूसरी, एफएम रेडियो को आकाशवाणी के समाचार प्रसारण की अनुमति दे दी गयी है। इन निर्णयों का क्या असर होगा?

एफएम के तीसरे चरण के विस्तार में एक लाख की आबादी वाले वे शहर शामिल हैं, जो जिला या छोटे शहर होंगे। फिलहाल देश में 606 जिले और 5161 शहर हैं लेकिन इनमें से 514 जिलों में अभी एफएम नहीं है। क्या उन्हें मनोरंजन के साधन के रूप में एफएम की सुविधा का हक नहीं है? क्या सिर्फ बड़ी आबादी वाले शहरों के लोगों को ही एफएम की सुविधा मिलनी चाहिए? अब तक मेट्रो और बड़े शहरों में खुले एफएम के क्या मायने हैं? क्या इसका एक संदेश यह है कि यदि आपको एफएम सुनना है तो बड़े शहर में रहना होगा?

एमएफ के तीसरे चरण का विस्तार काफी हद तक इस भेदभाव को दूर करने में कामयाब होगा। तब एफएम के मनोरंजन की धुनें छोटे शहरों से होते हुए गांवों तक भी पहुंचेंगी और तब महानगरों के मेट्रो में, बस स्टॉप पर मोबाइल पर एफएम का मजा लेते लोगों या कार में बजते एफएम की तरह यह गांव की चौपाल तक दस्तक देगा। यह एफएम के लिए अगली क्रांति होगी। क्योंकि 10वीं पंचवर्षीय योजना (2002-07) के दौरान ही एफएम को देश की 60 प्रतिशत जनता तक पहुंचाने का लक्ष्य था लेकिन 11वीं योजना के दौरान भी यह महज 40 प्रतिशत लोगों तक ही पहुंच सका है। 294 शहरों में एफएम के विस्तार के साथ ही अनुमान है कि एफएम की पहुंच देश की 90 प्रतिशत आबादी तक हो जाएगी क्योंकि देश की 75 प्रतिशत जनसंख्या 33 फीसदी जिलों में रहती है। इसका मतलब है कि तीसरे चरण में एफएम बड़ी आबादी तक पहुंच बनाने में कामयाब होगा। एफएम में ऐसा क्या है जो अन्य माध्यमों से अलग बनाता है और गांवों तक इसकी पहुंच होनी जरूरी है?

संचार के माध्यमों में रेडियो एक ऐसा अनूठा माध्यम है, जिसकी अपनी विशेषताएं हैं और इस वजह से यह मनोरंजन, सूचना और शिक्षा का बेहतरीन माध्यम है। ऐसे में एफएम पर समाचारों के प्रसारण की अनुमति देना भी इसके दायरे को विस्तृत करेगा। एफएम रेडियो एक ऐसा माध्यम है, जिसमें ग्रासरूट लेवल तक पहुंच की क्षमता है। यह माध्यम अपनी विशेषताओं की वजह से वहां पहुंच सकता है, जहां अखबार और टीवी की पहुंच नहीं है क्योंकि इसके लिए आपको टीवी और अखबार की तरह अतिरिक्त खर्च नहीं करना पड़ता। तो उम्मीद करें कि तीसरे चरण का एफएम विस्तार जैसे ही पूरा होगा, छोटे शहरों यानी डी ग्रेड शहरों में एफएम की पहुंच होगी। यह एफएम रेडियो के लिए संजीवनी का काम करेगा, क्योंकि तब एफएम बिहार में पटना और मुजफ्फरपुर से निकलकर छपरा और सिवान में भी पहुंचेगा। छत्तीसगढ़ में यह रायपुर से बाहर निकलकर दुर्ग, भिलाई, कोरबा और राजगढ़ में भी पहुंचेगा और सब कुछ योजनानुसार हुआ, तो शहरों में भी तीन तीन नये एफएम स्टेशन खुलेंगे यानी सूचना और मनोरंजन के इस माध्यम के लोकतंत्रीकरण की यह अगली प्रक्रिया होगी। तो क्या एफएम का उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन होना चाहिए या इसके इतर भी इसकी भूमिकाएं हो सकती हैं?

एफएम अपनी साफ और स्पष्ट आवाज की वजह से शॉर्ट वेब और मीडियम वेब की तुलना में अनूठा है। सरकार ने एफएम पर समाचारों के प्रसारण की अनुमति दे दी है लेकिन उन्हें सिर्फ आकाशवाणी के समाचारों के ही प्रसारण की अनुमति है। इस सीमा को भी और विस्तार देने की जरूरत होगी क्योंकि आकाशवाणी भी अधिकांश खबरों के लिए पीटीआई और यूएनआई जैसी एजेंसियों पर निर्भर है तो एफएम के लिए सिर्फ आकाशवाणी का दायरा क्यों रखा गया है? पहले भी ट्रैफिक अपडेट, अंतरराष्ट्रीय खेलों के परिणाम जैसे क्रिकेट मैच के स्कोर आदि को सूचना प्रसारण मंत्रालय ने समाचार की श्रेणी से अलग रखा था और इनके प्रसारण पर प्रतिबंध नहीं था। अब एफएम पर कुछ जरूरी सूचनाओं को भी समाचार और करेंट अफेयर्स से अलग रखा गया है। खेल आयोजनों की कमेंट्री और इससे जुड़ी सूचना, यातायात तथा मौसम से संबंधित जानकारी, सांस्कृतिक कार्यक्रमों, उत्सवों, परीक्षाओं, परिणामों, पाठ्यक्रमों में प्रवेश, करियर मार्गदर्शन, रोजगार अवसरों की उपलब्धता और स्थानीय प्रशासन द्वारा मुहैया करायी जाने वाली बिजली-पानी की आपूर्ति, प्राकृतिक आपदाओं और स्वास्थ्य संदेश संबंधी जानकारियों को गैर-समाचार तथा सामयिक मामलों की प्रसारण श्रेणी में रखा गया है। यह एफएम के लिए स्थानीय स्तर पर बेहद जरूरी है। तो फिर एफएम संचालन में समस्या क्या होगी?

एफएम के तीसरे चरण के तहत लाइसेंसों की नीलामी के जरिये सरकार को 1,733 करोड़ रुपये का राजस्व मिलने की उम्मीद है और यह 1200 करोड़ की वर्तमान रेडियो इंडस्ट्री में महत्वपूर्ण विकास होगा। फिलहाल विज्ञापन बाजार में रेडियो की हिस्सेदारी महज 5 प्रतिशत है। तीसरे चरण के विस्तार के बाद इसमें 2 प्रतिशत बढ़ोत्तरी की संभावना है। छोटे शहरों में एमएम चलाने के लिए राजस्व जुटाना एक बड़ी चुनौती होगी लेकिन तीसरे चरण के तहत निजी एफएम चैनलों को उनके प्रसारण तंत्र के तहत नेटवर्किंग की अनुमति देकर लागत कम करने की कोशिश की गयी है। तब भी एफएम के तीसरे चरण का विस्तार रोजगार के कुछ अवसर उपलब्ध कराएगा।

मोहल्ला लाइव में छपे इस लेख की लिंक

Friday, July 15, 2011

विरोध का अनूठा तरीका


यह तस्वीर है तमिलनाडु के शहर नागरकोईल की जहां यह व्यक्ति कलेक्ट्रेट परिसर में बैठा भीख मांग रहा है। इस सिविल इंजीनियर ठेकेदार ने अपने पास लगाई तख्ती पर लिखा है कि -पंचायत यूनियन असिस्टेंट एक्सीक्यूटिव इंजीनियर को घूस देने के लिए कृपया भीख दें।

बाद में इस ठेकेदार को पुलिस पकड़कर ले गई और उससे रिश्वत मांगने वाले अधिकारी के बारे में पूछताछ की गई। ठेकेदार ने पुलिस को बताया कि मालागुमदू गांव में 45000 रुपए का एक सड़क काम उन्होंने पूरा किया और उसका बिल प्रस्तुत किया, जो पिछले एक महीने से रिश्वत न देने की वजह से अटका हुआ है।

रिश्वत का विरोध के इस अनूठे तरीके पर ठेकेदार ने कहा उसके पास और कोई रास्ता नहीं था। उन्होंने कहा मैंने अपना काम पूरा किया है और सड़क की गुणवत्ता का ध्यान रखा है। इसमें मुझे मामूली राशि का मुनाफा होगा। उसमें से भी मैं इन अधिकारियों को क्यों दू? इस ठेकेदार ने हाल ही में कन्याकुमारी के जिला पुलिस अधीक्षक से भी पूछा था कि केरल की एक लड़की के यौन शोषण के आरोपी उस विशेष शाखा निरीक्षक का भी पता लगाया जाना चाहिए जो मीडिया में कथित रिपोर्ट आने के बाद फरार है।

Thursday, July 14, 2011

संकट में मर्डोक का साम्राज्य


यह बढ़ते चौतरफा दबावों का नतीजा है कि मीडिया मुगल रूपर्ट मर्डोक की कंपनी को बैकफुट पर आना पड़ा है। मर्डोक ने सेटेलाइट ब्रॉडकास्टिंग कंपनी ब्रिटिश स्काई ब्रॉडकास्टिंग (बीस्काईबी) के अधिग्रहण की दौड़ से अलग होने का फैसला किया है। उनकी कंपनी ने बीस्काईबी के अधिग्रहण के लिए 12 अरब डॉलर की बोली लगाई थी। उन्हें लगा था कि फोन टैपिंग के कारण विवाद में आए न्यूज ऑफ द वर्ल्ड को बंद करने से उनकी समस्याएं समाप्त हो जाएंगी लेकिन उनकी कंपनी न्यूज कॉरपोरेशन पर संकट के बाद अभी भी टले नहीं है। ब्रिटिश सरकार ने फोन टैपिंग सहित पूरे मामले की जांच के लिए जज ब्रायन लेवेजन के नेतृत्व में एक टीम बना दी है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने यह चेतावनी भी दी है कि मर्डोक की संस्था का कोई सदस्य गलती करने का दोषी पाया गया तो जीवन भर ब्रिटिश मीडिया से नहीं जुड़ पाएगा। ब्रिटेन के संसद के सत्ता पक्ष और विपक्ष ने एकजुट होकर इस मामले में मर्डोक, उनके बेटे जेम्स और न्यूज ऑफ द वर्ल्ड के पूर्व संपादक को समन भेजकर जिस प्रकार का रूख अख्तियार किया है उसके बारे में मर्डोक ने सपने में भी नहीं सोचा होगा। क्योंकि ये वही मर्डोक हैं जिनका समर्थन पाने के लिए पक्ष और विपक्ष सभी में होड़ लगी रहती थी। कटघरे में खड़े न्यूज कॉर्प के लिए इस झटके से उबर पाना आसान नहीं होगा और हो सकता है इस विवाद से पीछा छुड़ाने में ही मर्डोक का नाम और विवादों में भी सामने आए। अमेरिकी सांसदों ने इस बात के जांच की मांग की है कि कहीं अमेरिकी लोगों के भी तो फोन टेप या हैक तो नहीं किए गए। यही नहीं मर्डोक अपने बाकी के अखबारों को भी बेचने का भी मन बना रहे हैं। मीडिया के लिए स्तरहीन मानक स्थापित करना और निजता में दखल कहीं मर्डोक के मीडिया साम्राज्य के पतन की शुरुआत का कारण तो नहीं बन जाएगा।

Tuesday, July 12, 2011

न्यूज ऑफ द वर्ल्ड : बंद अध्याय से आरंभ सवाल


-मिथिलेश कुमार

ब्रिटेन में फोन हैकिंग को लेकर आरोपों में घिरे मीडिया मुगल रूपर्ट मर्डोक के अखबार ‘न्यूज ऑफ द वर्ल्ड’ को बंद कर दिया गया लेकिन इसे लेकर कुछ सवाल अभी भी लोगों के जहन में हैं जिनका जवाब ढूंढा जाना बाकी है। जिस अखबार का अंत किया गया, क्या इसे बंद करना सही उपाय था? इसके साथ ही बहस इस बात पर भी हो रही है कि मीडिया जब अपनी हद को पार कर जाए तो उसे कौन नियंत्रित करेगा?

एक झटके से बंद हुए अखबार में काम कर रहे लोगों के भविष्य के लिए क्या कोई आवाज उठाएगा? और सबसे बड़ी बहस ये भी है कि प्रेस के ऐसे कृत्य के बाद क्या उस पर अंकुश लगाने या नियामक के लिए कौन से उपाय होने चाहिए? सवाल प्रेस और पुलिस के व्यवहार और प्रेस के नियमन का भी है? सवाल ये भी है कि आखिर जो मुख्य आरोपी हैं वे अगर सत्ता प्रतिष्ठानों और अखबार मालिकों के करीबी हों तो उन पर कार्रवाई कौन करेगा? खबरें जुटाने के विवादास्पद तरीकों पर निगरानी कैसे होगी? लोगों की निजता में दखल देने वालों पर कौन नकेल कसेगा? नैतिकता और मर्यादा की तमाम सीमाओं को लांघकर पत्रकारिता के किन मूल्यों की स्थापना होगी? किसी चलते अखबार को बंद करने का फैसला आसान नहीं है? आखिर वे कौन सी परिस्थितियां थी जिसकी वजह से ब्रिटेन के इस सर्वाधिक प्रसारित अखबार को एकाएक बंद करना पड़ा और इसके क्या संदेश हैं?

1 अक्टूबर 1843 को इस अखबार का पहला संस्करण आया था और इन 168 वर्षों में यह अखबार ब्रिटेन के राजपरिवार की छह पीढियों का गवाह रहा है। जैसा कि इस अखबार के अंतिम संपादकीय में लिखा गया- इसने इतिहास जिया है, इतिहास देखा है और इतिहास बनाया है। इस अखबार ने महारानी विक्टोरिया के निधन, टाइटैनिक जहाज के डूबने, दो विश्व युद्ध, 1966 में फुटबॉल विश्व कप जीत, चंद्रमा पर पहला व्यक्ति, डायना की मौत सहित कई ऐतिहासिक मुद्दों को कवर किया। मर्डोक ने 1969 में इस अखबार को खरीदा था और इसे नई ऊंचाईयों तक ले गए।

ब्रिटेन में 27 लाख प्रतियों के साथ लगभग 75 लाख पाठकों तक पहुंचने वाला साप्ताहिक टैबलायड न्यूज ऑफ द वर्ल्ड बहुत घाटे में भी नहीं था और पिछले दो दशक से इसकी लोकप्रियता इसी दम पर पाठकों में बनी थी कि इस अखबार में सेलेब्रेटी की जिंदगी से जुड़ी गॉसिप, सेक्स और क्राइम का सनसनीखेज मसाला छपता था। अखबार ने इसी में दो कदम आगे बढ़ते हुए अपनी सीमाएं तोड़ते हुए वर्जित क्षेत्रों में प्रवेश किया और उसका नतीजा हुआ कि उस पर कई गंभीर आरोप लगे। इसमें सर्वाधिक विवादास्पद आरोप फोन टैंपिग का है।

जब एंडी कालसन संपादक थे तब अखबार ने पुलिस अधिकारियों को पैसे देकर जानकारी जुटाई। पुलिस अधिकारियों को अखबार द्वारा रिश्वत देकर जानकारी लेने का यह अनूठा उदाहरण दुनिया की पत्रकारिता जगत में दुर्लभ है। यही नहीं फोन हैकिंग के मामले तो और अद्वितीय है।

अटकलें हैं कि अखबार ने लगभग 7000 लोगों के फोन हैक कराए और खुफिया तरीके से जानकारी जुटाई। इस काम में जासूसों की भी मदद ली गई। इसी का नतीजा था कि अखबार ने 2005 में प्रिंस विलियम के घुटने की चोट की खबर छाप दी जिसके बाद महल के अधिकारियों ने कहा कि यह खबर वॉयस मेल को हैक किए बिना संभव नहीं थी और इसका परिणाम हुआ कि शाही मामलों के संपादक को चार महीने की जेल की सजा हुई। कालसन के संपादक रहते हुए कई सेलेब्रेटी और राजनीतिज्ञों के फोन हैक कराए गए। इन्हीं उदाहरणों में सबसे अमानवीय कृत्य भी सामने आया जब स्कूल की एक 13 वर्षीय लड़की मिली डाउलर की 2002 में हत्या हो गई थी और हत्या के बाद निजी जासूस की मदद से अखबार ने उसका फोन हैक कराया और कुछ वॉयस मेल हटा दिए गए। इससे उस परिवार को यह झूठी उम्मीद जगी कि शायद उनकी बेटी जिंदा है लेकिन ऐसा नहीं था। उसकी हत्या हो गई थी।

हैंकिंग के अमानवीय कृत्यों में उन परिजनों के फोन हैक किया जाना भी शामिल है जो 7 जुलाई 2005 के बम धमाकों में मारे गए और उन परिजनों के फोन भी जिनके परिवार के सदस्य इराक और अफगानिस्तान युद्ध में मारे गए। खबरें निकालने की जद्दोजहद में अखबार के रिपोर्टर और नीति निर्धारक अपनी सारी मर्यादाओं को भूल गए। आउट ऑफ कोर्ट सेटलमेंट किए। ब्रिटेन वह देश है जो दुनिया को सभ्यता का पाठ पढ़ाता है लेकिन मीडिया मुगल मर्डोक के इस साप्ताहिक की बात निराली थी और इससे भी अनूठा यह सवाल है कि मिली डाउलर की हत्या के समय इस टैबालायड की संपादक रही रिबेका ब्रूक्स पर कोई कार्रवाई क्यों नहीं हो रही है?

रिबेका ब्रूक्स मर्डोक की नजदीकी मानी जाती हैं और इसी वजह से वे अब मर्डोक के न्यूज इंटरनेशनल में मुख्य कार्यकारी हैं। 2003 में वे वर्ल्ड ऑफ द न्यूज की संपादक रहीं और उसके बाद द सन का संपादक बना दिया गया था। उन्होंने ब्रिटेन के हाउस ऑफ कामंस के पैनल के समक्ष कहा था कि हम पुलिस को पैसे देकर जानकारियां लेते हैं। आज वह मर्डोक की कंपनी की प्रमुख हस्तियों में शुमार हैं। यदि दोषी सत्ता प्रतिष्ठान के इर्द गिर्द का हो तो क्या वह निर्दोष हो जाता है? कहा जा रहा है कि सिर्फ इस एक महिला को बचाने के लिए पूरा अखबार बंद करना पड़ा और 200 लोगों के भविष्य पर अब भी प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है। क्या अखबार बंद करना इस सवाल का हल है? सवाल तो अवैधानिक तरीके अपनाने और उन पर फैसला लेने वाले लोगों का है? लोग सवाल पूछ रहे हैं कि आज जबकि उस अखबार में ज्यादातर लोग नए हैं। संपादक बदल गए हैं तब भी गाज उन पर क्यों गिराई गई जो गलती इन लोगों ने की ही नहीं और जिन लोगों ने गलती की, वे अब भी मजे में हैं?
पुलिस अधिकारियों को रिश्वत दिए जाने के समय एंडी कालसन अखबार के संपादक थे लेकिन उन पर कोई कार्रवाई नहीं हुई? उसके बाद एंडी कंजरवेटिव पार्टी के संचार निदेशक बन गए थे और बाद में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन के मीडिया सलाहकार के पद से नवाजे गए। मतलब साफ है जो इस कृत्य के लिए दोषी है, वे अब महत्वपूर्ण पदों पर काबिज हैं और इनके गिरेबां पर हाथ डालने से आसान काम अखबार को बंद करना ही था। क्योंकि अब जब अखबार के इन कृत्यों की हर तरफ निंदा हो रही है, वे किसी तरह अपनी साख बचाना चाहते हैं। आखिर वे अपनी साख क्यों बचाना चाहते हैं? इसके पीछे वजह है कि वे ब्रिटिश स्काई ब्रॉडकास्टिंग (बीस्काईबी) की शेष 61 प्रतिशत हिस्सेदारी पर भी कब्जा चाहते हैं और इसमें उन्हें ब्रिटेन की संसद का समर्थन चाहिए। वे नहीं चाहते कि न्यूज ऑफ द वर्ल्ड का विवाद इस सौदे के आड़े आए।

मीडिया खबर में छपे इस विश्लेषण की लिंक

Sunday, July 10, 2011

आइसक्रीम और फ्रूटी


-मिथिलेश कुमार

वह स्वतंत्रता सेनानी एक्सप्रेस का रिजर्वेशन डिब्बा था और साइड की बर्थ पर एक दंपति के साथ उसके दो बच्चे भी थे। उनमें बिटिया की उम्र लगभग 6 वर्ष और बच्चे की 4 वर्ष थी। दोनों में एक क्षण के लिए भी ऐसा न था कि उनमें झगड़ा न हो रहा हो। बच्चों से परेशान मां ऊपर की बर्थ पर जाकर सो गई। अब बच्चों को संभालने की जिम्मेदारी पिता पर थी। दोनों खिड़की से बाहर झांक रहे थे। ट्रेन आगे जा रही थी। शहर, गांव, मुहल्ले, खेत, पेड़ पौधे, मवेशी सब पीछे छूट रहे थे। तभी आइसक्रीम वाला आया। बच्चे ने आइसक्रीम खाने जिद की। उसके साथ उसकी बहन ने भी मिन्नत की। उसे भी आइसक्रीम चाहिए। पिता ने बच्चे को आइसक्रीम दे दी और बच्ची की बात अनसुनी कर दी। बच्ची कातर आंखों से आइसक्रीम वाले को देख रही थी। शायद उस पर वह रहम करे और कह दे कि एक आइसक्रीम तुम भी ले लो। मेरी तरफ से, पर यह सिर्फ उसकी सोच हो सकती थी। हकीकत में ऐसा न हुआ। आइसक्रीम वाला पैसे लेकर आगे निकल गया।

बच्चा आइसक्रीम में सराबोर होने लगा। कुछ उसकी सीट पर गिरती, कुछ उसकी किसी रेहड़ी से खरीद कर पहनाई गई शर्ट पर। पर उससे कोई अंतर न था। वह आइसक्रीम खाने के साथ इस बात में मगन था कि आइसक्रीम सिर्फ उसे मिली है। उसकी बहन को नहीं। वह बच्ची अब भी एक उम्मीद के साथ अपने भाई को देखती कि शायद उसे दया आ जाए और एक बार उसे भी वह ठंडी बरफ चाटने को मिल जाए। बच्चा शरारती था। बहन जैसे ही पास आने की कोशिश करती वह उल्टी तरफ मुड़ जाता। बहन फिर नाउम्मीद। और इतनी हिम्मत तो थी नहीं वह उससे जबरदस्ती ले ले।

बच्चा आइसक्रीम खाता कम था, दिखाता ज्यादा था और उससे भी ज्यादा सीट और अपने कपड़ों पर गिरा रहा था। पिता की आंखों में शायद एक विजयी भाव थाबच्चा मजे से खा रहा है और खुश हो रहा है। बच्ची मिन्नत भरी आंखों से पिता पर भी गुस्सा कर रही थी। उसे क्यों नहीं दी गई। बाप क्या कहता, क्योंकि उसे कोई अफसोस नहीं था। फिर भी उसने बच्ची को दिलासा दिया, जब थोड़ी सी बचेगी तब खा लेना। लड़की ने कहा नहीं, अब तो उसे पूरी ही चाहिए। नई चाहिए। पिता का बच्ची के प्रति दायित्व बोध जगा, कहा आने दो आइसक्रीम वाले को फिर तुम्हें अलग से एक पूरी आइसक्रीम दिला दूंगा।

बच्ची को कुछ उम्मीद जगी। वह उम्मीद उसकी जीत की थी लेकिन उस जीत को आना अभी बाकी था। आइसक्रीम खत्म होने की कगार पर आ गई और बच्ची ने भी अब उस आइसक्रीम को न छूने का प्रण किया। आइसक्रीम खत्म होते ज्यादा वक्त नहीं लगा और लेकिन आइसक्रीम वाला नहीं आया। हां, तभी एक फ्रूटी वाला जरूर आ गया।

अब बच्ची की बारी थी। उसकी आंखों में चमक थी और विश्वास भी। उसने अपनी फ्राक के नीचे पैंट में छुपाकर कुछ सिक्के रखे थे। उसने सारे सिक्के उस फ्रूटी वाले के हाथ में रख दिए। फ्रूटी वाले ने सिक्कों को देखा। तब तक बाप ने भी एक दस का नोट उसके हाथ में पकड़ा दिया था। उसने बच्ची को पहले फ्रूटी दी और फिर सिक्के में से सिर्फ दो रखकर बाकी उसने बच्ची को वापस कर दिए। बच्ची खुश थी उसने पैसे को जल्दी-जल्दी रखाफ्रूटी में झट से सुड़कने के लिए पाइप लगाई। बच्चे की तरफ देखे बिना उसे खींचना शुरू कर दिया। उसे जल्दी थी कि शायद उसे भी बच्चे को न दे दिया जाए, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बच्चा मुंह ताकता रह गया। बच्ची विजयी मुस्कान के साथ फ्रूटी के डिब्बे की अंतिम बूंद गटक रही थी।

Wednesday, June 29, 2011

वो मदद आज भी नहीं भूला...

- मिथिलेश कुमार

वे एक प्रतिष्‍ठित विश्‍वविद्यालय में स्‍नातकोत्तर स्‍तर के व्‍यावसायिक पाठ्यक्रम की विभागाध्‍यक्षा हैं। 30 साल के करियर में लोग उन्‍हें अनुशासनप्रिय विभागाध्‍यक्षा के रूप में ज्‍यादा जानते हैं। उन्‍होंने अपना करियर उस दौर में शुरू किया था जब मीडिया में महिलाओं की दखल न के बराबर थी। आज वे एक वरिष्‍ठ पद पर हैं और स्‍वभावत: अनुशासनप्रिय भी। उनका व्यक्तित्व ऐसा था कि छात्र उनसे अपनी बात कहने में घबराते थे, उन्‍हें लगता था कि कहीं वे उनकी बात सुनकर रुष्‍ट न हो जाएँ।

मैं अपने दोस्‍तों के समूह में भी किसी मुद्दे पर अनावश्‍यक नहीं बोलता था, जिसके लिए मुझे कई बार प्रशंसा मिली और उलाहना भी। मैं समझ नहीं पाता था कि मुझे ऐसा ही रहना चाहिए या अपने इस स्‍वभाव में कुछ बदलाव करना चाहिए। मैं अपने दो वर्षीय पाठ्यक्रम के दौरान कभी ज्‍यादा नहीं बोल सका। शायद यह मेरे अर्न्‍तमुखी स्‍वभाव के कारण रहा और खासकर अपनी विभागाध्‍यक्ष के सामने।

लेकिन एक बार उनके सामने कुछ कहने का ऐसा मौका आया कि मैं स्‍वयं सोच में पड़ गया कि क्‍या करें? हुआ यूँ कि मुझे तीसरे सेमेस्‍टर के परीक्षा फार्म के साथ फीस भरनी थी और मेरे पिताजी अंतिम तिथि तक किसी कारणवश फीस भेजने में असमर्थ थे और उस दिन मैं यह सोच रहा था कि विलंब शुल्‍क के साथ फीस भरनी पड़ी तो आर्थिक बोझ बढ़ जाएगा। क्‍या करूँ? किससे मदद माँगू?

मैंने अपने दोस्‍तों से भी मदद माँगी, लेकिन कोई भी इस स्‍थिति में नहीं था। यह शहर भी मेरे लिए अनजाना था, मैं इसी उधेड़बुन में रहा कि अपने विभागाध्‍यक्षा को कैसे अपनी परेशानी बताऊँ? क्‍या वे मेरी परेशानी समझ पाएँगीं? क्‍योंकि हमारे मन में उनकी एक ऐसी छवि थी कि वे किसी से सीधे मुँह बात तक नहीं करतीं।

मुझे देख्‍ाते ही शायद उनका यही जवाब होता- आपको पहले से पता है कि फीस जमा करने की अंतिम तिथि तय है तो आपको पहले से इसकी व्‍यवस्‍था कर लेनी चाहिए थी। इस संभावित उत्तर की आशा के बावजूद मरता क्‍या न करता की स्‍िथति में उन्‍हें अपनी समस्‍या बताना ज्‍यादा मुफीद जान पड़ा। उस समय लंच टाइम था और मैं अकेला क्‍लासरूम में बैठा यही सोच रहा था कि विभाग के एक कर्मचारी ने मुझे सूचित किया कि आपको विभागाध्‍यक्षा ने बुलाया है। मैं थोड़ी देर के लिए सोच में पड़ गया कि आखिर क्‍या बात हो गई?

मैंने जैसे ही उनके कक्ष में प्रवेश किया, उन्‍होंने मुझे बैठने का इशारा किया और सीधा सवाल पूछा- आपकी कक्षा के 15 छात्रों में सिर्फ आपका परीक्षा फार्म अब तक जमा नहीं हो पाया है, क्‍यों? जो बात मैं उनसे कहने की सोच रहा था वह उन्‍होंने स्‍वयं ही पूछ ली। जब मैंने उन्‍हें अपनी परेशानी बताई तो पहली बार उन्‍होंने मेरी पारिवारिक स्‍थिति के बारे में पूछा और फीस जमा न कर पाने का कारण जानकर तुरंत ही अपने खादी के झोले से पर्स निकाला और तत्‍काल परीक्षा फीस की राशि मुझे दी।

मैं उस समय उनकी एक ऐसी छवि देख रहा था जो मेरे और मेरे साथियों के लिए अनभिज्ञ थी। मैंने उनका आभार माना, तुरंत जाकर फीस जमा की और उनके बताए अनुसार शेष फीस विलंब से भुगतान करने का आवेदन दिया। उनकी इस दरियादिली पर मेरी आँखों में आँसू आ गए और अब उनके प्रति मेरी धारणा पूरी तरह बदल गई है।

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'रोजगार गारंटी' में भ्रष्‍टाचार का ब्रेक

-मिथिलेश कुमार
केन्‍द्र की संप्रग सरकार के महत्‍वाकांक्षी राष्‍ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम का एक अप्रैल 2008 से देश के बाकी सभी जिलों में विस्‍तार किया जाएगा।

दो वर्षों के अल्‍प समय में इस योजना को पूरे देश में लागू किया जाना सरकार का एक महत्‍वपूर्ण उपलब्‍धि होगी। क्‍योंकि योजना बनाए जाने के पहले इसकी काफी आलोचना की गई थी, जिसमें योजना के लिए धन कहाँ से आएगा, यह सबसे बड़ा सवाल था?

सरकार ने योजना के लिए पर्याप्‍त धन उपलब्‍ध कराकर अपनी प्रतिबद्धता दिखा दी है। यह अकेली ऐसी योजना है, जिसने ढाई करोड़ से ज्‍यादा लोगों को रोजगार मुहैया कराया है। भले ही इसकी सीमाएँ हैं। यह मात्र 100 दिन के रोजगार की गारंटी देता है। अभी तक केवल 330 जिलों के लोग ही इसका लाभ उठा पाए हैं, लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद भारी भ्रष्‍टाचार की शिकायतों का दौर नहीं थमा है, जो योजना के शुरुआती समय से ही उठता रहा है।

ग्रामीण क्षेत्र के असंगठित मजदूरों के हित में कदम उठाने के लिए राष्‍ट्रीय सलाहकार परिषद ने दो साल चली व्‍यापक बहस के बाद राष्‍ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी का मसौदा तैयार किया था। इस योजना को 2 फरवरी 2006 को देश के 200 चुनिंदा जिलों में शुरू किया गया था, जिसमें अगले वर्ष और 130 जिलों को शामिल किया गया। अब इन दो सालों में जो नतीजे मिले हैं, उसे देखते हुए ही इसे देश के बाकी सभी जिलों में लागू किए जाने का फैसला किया गया है।

यह अधिनियम 7 सितंबर 2005 को इस उम्‍मीद से अधिसूचित किया गया कि अकुशल शारीरिक श्रम के इच्‍छुक प्रत्‍येक परिवार के वयस्‍क सदस्‍यों को वित्तीय वर्ष में कम से कम सौ दिन का रोजगार मुहैया कराने की गारंटी दी जाएगी।

सरकार ने इस योजना के 2 वर्ष पूरे होने पर इसकी सफलता के जो दावे किए हैं, उसे मानें तो वर्ष 2007-08 के दिसंबर तक 2.57 करोड़ परिवारों को रोजगार दिया गया और इससे रोजगार के 85.51 करोड़ श्रम दिवस सृजित किए गए, जबकि अभी एक तिमाही के आँकड़े आने बाकी है।

इसके पहले 2006-07 में इस योजना में 2.10 करोड़ परिवारों को रोजगार दिया गया था और 90 करोड़ श्रम दिवस सृजित किए गए थे। तब मात्र 200 जिलों के लोगों को इसका लाभ मिला था और इस मद में 8823.35 करोड़ रुपए खर्च किए गए थे, जबकि वर्तमान वित्त वर्ष में दिसंबर 2007 तक 9105.74 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं। योजना के अंतर्गत 13 लाख से अधिक छोटे-बड़े काम कराए गए हैं, जिसमें आधे से अधिक जल संरक्षण से संबंधित कार्य हैं।

काम पाने में महिलाओं की हिस्‍सेदारी भी उल्‍लेखनीय रही है। 2006-07 में इस योजना में महिलाओं की भागीदारी 41 प्रतिशत थी, वह चालू वर्ष में 44 प्रतिशत हो गई है। योजना से लाभान्‍वित होने वालों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों की हिस्‍सेदारी भी वर्ष 2006-07 में 61.79 प्रतिशत थी, वह चालू वर्ष में 58.29 प्रतिशत रही है। इसे और भी बढ़ाया जा सकता है और इसमें सिविल सोसायटी संगठनों की भूमिका और उल्‍लेखनीय हो सकती है। ये संगठन राष्‍ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम 2005 के अंतर्गत समुदायों को अपने अधिकारों के प्रयोग के प्रति जागरूक बना सकते हैं।

भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय के हाल ही में जारी रिपोर्ट कार्ड के अनुसार, गुजरात, हरियाणा, महाराष्‍ट्र, मेघालय, पंजाब और तमिलनाडु ने तो रोजगार की माँग करने वाले सभी परिवारों को रोजगार उपलब्‍ध कराया है। महाराष्‍ट्र में उपलब्‍ध 44678.41 लाख रुपए की निधि में से 9877.46 लाख रुपए व्‍यय करके काम माँगने वाले सभी लोगों को रोजगार उपलब्‍ध करा दिया है जबकि कुल 8110 कार्यों में से अभी मात्र 1397 कार्य पूरे किए गए हैं, शेष कार्य चल रहे हैं।

इसी तरह पंजाब में योजना के लिए उपलब्‍ध 4339.68 लाख रुपए की निधि में से 1277.74 लाख रुपए व्‍यय कर 701 कार्य पूरे किए गए हैं। जबकि इससे अधिक कार्य चल रहे हैं।

हालाँकि पूर्वोतर राज्‍यों में योजना ने अपेक्षा के अनुरूप प्रदर्शन नहीं किया है। मणिपुर में रोजगार की माँग करने वालों में अधिकांश को रोजगार तो उपलब्‍ध करा दिया गया है, लेकिन वहाँ चल रहे 1232 कार्यों में से 2 कार्य ही पूरे हो सके हैं। नगालैंड में चल रहे 102 कार्यों में एक भी पूरा नहीं हुआ है और उपलब्‍ध 2309.72 लाख रुपए में से अभी 327.84 लाख रुपए खर्च हुए हैं। जाहिर है वहाँ पूरी राशि व्यय नहीं हो पाएगी। वैसे सरकार को इन राज्‍यों की समीक्षा करनी चाहिए।

योजना के लिए वित्तीय मदद में 90 फीसदी केन्‍द्र सरकार और शेष 10 फीसदी राज्‍य सरकार को वहन करना होता है। इसमें अधिकांश राज्‍य सरकार के खर्च का ब्‍योरा बताता है कि पिछड़े माने जाने वाले राज्‍यों की सरकारों ने भी अपनी हिस्‍सेदारी में कोताही नहीं बरती है।

केरल, आंध्रप्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, प. बंगाल और अन्‍य राज्‍यों में इस योजना के तहत काम करने वालों की मजदूरी के भुगतान में पारदर्शिता के लिए बैंकों और डाकघरों में 64 लाख खाते खोले गए हैं। राज्‍य और केन्‍द्र सरकारों के वरिष्‍ठ अधिकारियों द्वारा तथा नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक द्वारा कार्यों की गहन जाँच की जा रही है। परियोजना के नियोजन, कार्यान्‍वयन और निगरानी में ग्राम पंचायतों, मध्‍य स्‍तरीय पंचायतों ओर जिला पंचायतों को शामिल किया गया है ताकि वे ही योजनाएँ बनाएँ और उनका क्रियान्‍वयन किया करें।

सरकार इसे ग्रामीण श्रमिकों के लिए पूरक मजदूरी आय के रूप में प्रचारित कर रही है। क्‍या वाकई इस पूरक मजदूरी से ग्रामीणों की आय में अंतर आ पाया है? इसका कोई अध्‍ययन सामने लाया जाना चाहिए। इस योजना से जुड़ने के बाद किसी बेरोजगार आदमी के जीवन में किस तरह की आर्थिक उन्‍नति हुई है।

आँकड़ों की हकीकत के बीच आलोचनाएँ : मध्‍यप्रदेश में रोजगार गारंटी को लेकर खुशी का माहौल है। राज्‍य सरकार की जहाँ देशभर में सबसे अधिक रोजगार उपलब्‍ध कराने को लेकर बाँछें खिली हुई हैं, वहीं लोगों के सामने भी इस मिथ्या को बढ़ा-चढ़ाकर परोसा जा रहा है। असल में हकीकत इससे कोसों दूर है।

भारत सरकार द्वारा जारी रिपोर्ट कार्ड में मध्‍यप्रदेश सरकार को अच्‍छा काम करते हुए बताया गया। योजना के लिए कार्य पर व्‍यय करने, पूर्ण करने और श्रम दिवस सृजित करने में मध्‍यप्रदेश अव्‍वल रहा है लेकिन भोजन का अधिकार अभियान की प्रदेश इकाई ने अपने अध्‍ययन रिपोर्ट में कई खामियाँ गिनाईं, जिनके निराकरण की बात इन दो सालों में बार-बार दोहराई गई हैं।

शिकायतें भी वही जो शुरू से की जा रही हैं- जरूरतमंद ग्रामीण मजदूरों को इसका लाभ नहीं मिल पा रहा है। बड़े पैमाने पर अनियमितताएँ बरती जा रही हैं। कार्यस्‍थल पर मजदूरों के लिए बुनियादी सुविधाओं का अभाव पाया गया है। समय पर मजदूरी का भुगतान नहीं हो रहा है।

ग्रामीण विकास मंत्रालय के दावों के उलट कई लोगों को माँगने के ‍बाद भी काम नहीं मिला। जॉब कार्ड में गलत इंट्री करने, बिना काम दिए जॉब कार्ड में काम करने का ब्‍योरा दर्ज करना या 2006 में कराए गए कार्यों का भुगतान अब तक न हो पाना, विकास योजनाएँ के लिए ग्राम सभा की बैठक न बुलाए जाने जैसी शिकायतें मिली हैं।

दिल्‍ली स्‍थित पर्यावरण और खाद्य सुरक्षा केन्‍द्र ने भी उड़ीसा के ग्रामीण इलाकों में अध्‍ययन के दौरान इसी तरह की शिकायतें पाकर सरकार के दावों पर सवालिया निशान लगाया था। राजस्‍थान के झालावाड़ में जनसुनवाई कर रहे अरुणा राय और निखिल डे के सामने भी वही शिकायतें आती हैं जो मध्‍यप्रदेश में इस योजना के संयुक्‍त सचिव एके सिंह के सामने टीकमगढ़, पन्‍ना, छतरपुर या सतना से आए लोग करते हैं।

उत्तरप्रदेश के उरई, जालौन, महोबा या बाँदा में भी योजना की खामियों के मुद्दे अलग नहीं हैं। कहीं फर्जी फर्म के नाम पर बिल बनाकर भुगतान उठा लिए जाने का मामला है तो कहीं एक ही दिन में एक ही जगह पर कराए जा रहे काम के लिए लाए गए सामानों की दर अलग-अलग रसीदों में अलग-अलग पाई गई हैं।

भ्रष्‍टाचार की तमाम शिकायतें जो आ रही हैं। इससे कैसे निपटा जाए, इस अहम सवाल का समाधान कर सरकार अपने दावों को गंभीरता से रख सकती है। भ्रष्‍टाचार पर अंकुश के उपाय किए बिना इसकी सफलता पर सवाल उठते ही रहेंगे। वैसे भी योजना की आलोचनाएँ इसे सशक्‍त बनाने में मदद करेंगी, इसमें लगातार सुधार की गुंजाइश बताती रहेगी। लेकिन इन शिकायतों के आधार पर ऐसा तो नहीं माना जा सकता कि योजना अपने उद्देश्‍यों से भटक गई है क्‍योंकि शिकायतें तभी आ रही हैं जब कुछ हुआ है और यह कुछ न होने से बेहतर है।

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Monday, May 23, 2011

एक नए देश का जन्म


किसी नए देश के गठन का जिक्र सुनते ही आपके मन में सबसे पहला सवाल क्या आता है? शायद यह कि नए देश को इसके लिए क्या करना पड़ता होगा? इसी साल जुलाई में सूडान दो हिस्सों में बंटने वाला है। उत्तरी सूडान से अलग होकर दक्षिणी सूडान दुनिया का सबसे नया देश बनने वाला है। आइए जानते हैं दक्षिणी सूडान को नए देश के लिए कहां-कहां और कौन-कौन से बदलाव करने होंगे?

एक नए देश के गठन के साथ ही अनेक नई चीजों की पहल करनी पड़ती है। इसके लिए सबसे पहला कदम होता है उस नए देश का राष्ट्रगान। इसके बाद अन्य बदलाव हैं - अंतरराष्ट्रीय टेलीफोन डायलिंग कोड, देश के लिए इंटरनेट सफ्रीक्स, हवाई ट्रैफिक कंट्रोल, ट्रेड ट्रैफिक। एक नए देश के लिए सर्वाधिक कड़ी चुनौती होती है विदेश सेवा की स्थापना और विभिन्न देशों में राजनयिकों की नियुक्ति की।

ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना में सबसे पुराना राजनयिक प्रशिक्षण केंद्र है और इसने दक्षिणी सूडान को सहायता देने की पेशकश की है। इसके बाद चुनौती आती है राजनयिकों की मान्यता की। दुनिया में 190 से अधिक देशों के साथ संबंध स्थापित करना एक नए देश के लिए आसान नहीं है। 1991 में स्वतंत्र हुए इस्टोनिया के संबंध अभी तक दुनिया के 170 देशों से ही बन सके हैं और इसमें 2010 में सबसे नया संबंध हैती के साथ विकसित हुआ।

इसके बाद बारी आती है संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता की। नए देश के निर्माण के साथ ही उस देश का नाम संयुक्त राष्ट्र के दस्तावेजीकरण प्रभाग को जाता है और वहां से लोकप्रिय और औपचारिक नाम के रूप में उस देश का नाम 6 भाषाओं में छपकर सभी संयुक्त राष्ट्र सदस्य देशों के बीच भेजा जाता है।

नए देश का नाम जेनेवा स्थित इंटरनेशनल स्टैंडर्ड ऑर्गेनाइजेशन की डायरेक्ट्री के लिए भेजा जाता है जहां से उस देश के लिए एक कोड नेम मिलता है। जैसे अफगानिस्तान के लिए एएफजी और जिम्बाब्वे के लिए जेडडब्ल्यूई। यह कोड नए राज्य हेतु अंतरराष्ट्रीय पदों के लिए सहायक होता है। साथ ही यह नागरिकों के इमेग्रेशन में काम आता है।
नेशनल टॉप लेबल डोमेन का वेब एड्रेस में उपयोग होता है। जैसे फ्रांस के लिए डॉट एफआर या जर्मनी के लिए डॉट डीई। साउथ सूडान के लिए यह सफीक्स डॉट एसएस हो सकता है।

अंतरराष्ट्रीय टेलीफोन कोड संयुक्त राष्ट्र की जेनेवा स्थित एजेंसी इंटरनेशनल टेलीकम्यूनीकेशन यूनियन (आईटीयू) द्वारा आवंटित किया जाता है। अभी सूडान का डायलिंग कोड +249 है। इसकी जगह दक्षिणी सूडान के लिए नया डायलिंग कोड होगा। इरिट्रिया अफ्रीका का नया देश है और उसका डायलिंग कोड +291 है। इसलिए दक्षिणी सूडान का डायलिंग कोड +292 हो सकता है। आईटीयू रेडियो वेबलेंथ भी तय करता है।

इंटरनेशनल सिविल एविएशन ऑर्गेनाइजेशन हवाई यातायात में तो कोई सहायता नहीं करेगा लेकिन नई सरकार को मशीन से पढ़ने वाले पासपोर्ट देने में मदद करेगा। यूनिवर्सल पोस्टल यूनियन देश को विदेशों में चिट्ठियों के लिए नए पोस्टेज स्टाम्प की अनुमति देता है। दक्षिणी सूडान में कोई तटरेखा नहीं है लेकिन यह इंटरनेशनल मेरिनटाइम ऑर्गेनाइजेशन के साथ जुड़ सकता है। (कंटेंट- इकोनामिस्ट और फोटो - गार्जियन से साभार)

दक्षिणी सूडान का उदय और चुनौतियां


-मिथिलेश कुमार

तीन दिनों की लगातार लड़ाई के बाद उत्तरी सूडान ने दावा किया है कि उसने दक्षिणी सूडान की सीमा पर स्थित तेल समृद्ध विवादित शहर आबिए पर कब्जा कर लिया है और इसके साथ ही एक नया सवाल उठ खड़ा हुआ है कि क्या सूडान में एक बार फिर गृह युद्ध आरंभ हो गया है क्योंकि इससे पहले दुनिया के सबसे नवीनतम देश के गठन का रास्ता साफ हो गया है।
इसी साल 9 जुलाई को उत्तरी सूडान से अलग होकर दक्षिणी सूडान नामक एक नया राष्ट्र बनेगा। दक्षिण अफ्रीका के इस नए देश की राजधानी यूबा होगी। दक्षिणी सूडान दुनिया का सबसे नया और 193वां देश होगा। इस नवीनतम राष्ट्र के उदय का रास्ता कैसे साफ हुआ?
यह संभव हुआ इसी साल 9 से 15 जनवरी के बीच हुए जनमत संग्रह की वजह से जिसमें लगभग 99 फीसदी से अधिक लोगों ने उत्तरी सूडान से अलग होने का निर्णय किया। सूडान दो हिस्सों में न बंटे ऐसा मानने वाले बहुत कम लोग थे। इसमें सिर्फ लगभग 16 हजार लोगों ने एकीकृत सूडान के पक्ष में मतदान किया। एक हफ्ते तक चले मतदान के दौरान अड़तीस लाख से अधिक लोगों ने वोट डाले गए। जनमत संग्रह के लिए कीनिया, आस्ट्रेलिया और ब्रिटेन समेत आठ मतदान केंद्र बनाए गए। उत्साह ऐसा था कि दक्षिणी सूडान के 60 हज़ार से ज़्यादा विस्थापित लोगों ने इस मतदान में हिस्सा लिया। अब सवाल है आखिर वह कौन सी वजह रही जिसने सूडान को विभाजित करने के लिए जनमत संग्रह के लिए मजबूर किया और देश दो हिस्सों में बंटने जा रहा है।
दरअसल सूडान की खारतुम सरकार और सूडान पीपल्स लिबरेशन आर्मी के बीच 2005 में हुए शांति समझौते में तय किया गया था कि इसके दक्षिणी हिस्से को तुरंत स्वायत्तता दी जाए और 2011 की शुरुआत में जनमत संग्रह से तय कर लिया जाए कि क्या वहां रह रहे लोग अलग देश के पक्ष में हैं या नहीं? इसी पर अमल करते हुए जनमत संग्रह कराया गया। आखिर इस जनमत संग्रह पर सहमति कैसे बनी और इसकी जरूरत क्यों पड़ी?
असल में सूडान भौगोलिक रूप से भी दो हिस्सों में बंटा हुआ है। उत्तरी सूडान और दक्षिणी सूचना। दक्षिणी सूडान दुनिया के सबसे अविकसित क्षेत्रों में से एक माना जाता है और वहां के लोग लगातार आरोप लगाते रहे हैं कि उन्हें उत्तरी सूडान के सरकार के हाथों लगातार दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ा है। उत्तर और दक्षिण क्षेत्र के बीच लगातार संघर्ष का भी लंबा इतिहास रहा है और इस संघर्ष की मुख्य रूप से दो वजहें रही हैं पहली धार्मिक और दूसरी आर्थिक। देश के उत्तर में अरबी मुसलमान बसते हैं और दक्षिण में एनमिस्ट व ईसाई निवास करते हैं। नस्ली मुद्दे पर इन दोनों क्षेत्र के लोगों के बीच लगातार हिंसक भिड़ंतें होती रही हैं। इस देश को पहले 1955 से 1972 तक और फिर 1983 से 2005 तक दो बार गृह युद्ध का सामना करना पड़ा है और दूसरे गृह युद्ध में ही करीब 25 लाख लोग मारे गए और लगभग 50 लाख लोगों को विस्थापित होना पड़ा।
इससे अलग प्राकृतिक संसाधन के रूप में पेट्रोलियम और कच्चे तेल के भंडार सूडान में भरे पड़े हैं और सूडान प्रतिवर्ष अरबों डॉलर के तेल का निर्यात करता है। दक्षिणी सूडान इसमें से 80 प्रतिशत उत्पादन करता है लेकिन राजस्व के रूप में उन्हें केवल 50 प्रतिशत ही मिलता है। उत्तरी और दक्षिणी सूडान के बीच राजस्व का बंटवारा भी संघर्ष की एक वजह रहा है। इन लड़ाइयों के बीच कर्नल उमर अल बशिर ने 1989 में रक्तविहिन तख्तापलट कर सत्ता हथियाई थी। इसी बीच वहां दारफुर जैसा संकट भी खड़ा हुआ, जिसमें आरोप है कि सूडान की खारतुम सरकार ने अरब छापामारों की फौज खड़ी करके देश के पश्चिम में स्थित इस इलाके में ऐसा भयानक कत्लेआम कराया कि वह नस्ली रक्तपात की एक मिसाल बन गया। भयावह गृहयुद्ध के बीच अंतरराष्ट्रीय दवाब के बाद सूडान में शांति समझौता हुआ जिसके बाद जनमत संग्रह और अलग राष्ट्र की पटकथा तैयार हुई। तो अब अलग राष्ट्र बनने से इस देश के सामने चुनौतियां क्या होंगी?
सूडान उत्तरी अफ्रीका में स्थित है और क्षेत्रफल के लिहाज से दुनिया का दसवां बड़ा देश है। दुनिया की सबसे लंबी नदी नील देश को पूर्वी और पश्चिमी हिस्सों में विभाजित करती है जबकि व्हाइट नील इसे उत्तरी और दक्षिणी हिस्सों में बांटती है। माना जा रहा है कि दक्षिण सूडान के रूप में नए देश का उदय दशकों से जारी सिविल वॉर के खात्मे पर अंतिम मुहर लगाएगा। इस जनमत संग्रह के ज़रिए उत्तर और दक्षिणी सूडान अलग अलग हो जाएंगे और एक लंबे गृह युद्ध का अंत होगा जिसके बाद दोनों क्षेत्रों की अलग-अलग देशों के रुप में पहचान बन सकेगी।
हालांकि जनमत संग्रह के बाद भी दोनों क्षेत्रों के बीच कई और महत्वपूर्ण मुद्दों का निपटारा होना बाक़ी है। सीमा, ऋण और तेल संसाधन जैसे मुद्दे काफ़ी जटिल हैं और दुनिया के सबसे नए देश का निर्माण बहुत आसान नहीं होगा। दक्षिणी और उत्तरी सूडान के बीच आर्थिक संसाधनों के बंटवारे को लेकर वार्ताएं बाकी हैं। ये वार्ताएं कठिन होंगी क्योंकि सूडान में तेल का विशाल भंडार है। उत्तरी इलाक़े में लोग विभाजन को लेकर चिंतित हैं क्योंकि सूडान के अधिकतर तेल संसाधन दक्षिणी सूडान में हैं। यही नहीं तेल समृद्ध क्षेत्र आबिए पर भी फैसला होना बाकी है और यह सवाल अभी भी है कि इसकी विशेष प्रशासनिक स्थिति बनाए रखी जाएगी या इसे दक्षिणी सूडान में शामिल किया जाएगा।
दूसरे पड़ोसी राज्य भी इस देश की राजनीतिक स्थिति से प्रभावित होंगे। इसके उत्तर में मिस्र, उत्तर पूर्व में लाल सागर, पूर्व में इरिट्रया और इथियोपिया, दक्षिण पूर्व में युगांडा और केन्या, दक्षिण पश्चिम में कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य और मध्य अफ्रीकी गणराज्य, पश्चिम में चाड और पश्चिमोत्तर में लीबिया स्थित है। केन्या, इथोपिया और युगांडा नील नदी के पानी पर जूबा के साथ सौदा करना चाहते हैं। वहीं दक्षिण के तेल भंडारों और उत्तर के खेती वाली जमीनों में भी विदेशी शक्तियों की हिस्सेदारी है। साझेदार देश नए सूडान की ओर आशा भरी नजरों से देख रहे हैं क्योंकि अभी दक्षिणी सूडान के लिए यह शुरुआत है। उसके समक्ष नया संविधान बनाने की चुनौती है। वर्तमान सरकार को इसका ब्लूप्रिंट तैयार करना होगा। एक बार यह तैयार हो जाए तो फिर चुनावों का रास्ता भी साफ हो जाएगा। दशकों से गृहयुद्ध झेल रहे इस देश में परिवहन व्यवस्था बदहाल है। पूरी दुनिया को नए सूडान के सृजन में सहयोग करना होगा क्योंकि वहां शांति और स्थिरता विश्व शांति के हित में होगी और सूडान की करोड़ों जनता की जिंदगी भी आसान करेगी।

Tuesday, May 10, 2011

दो संसार


जहाँ मैं रहता हूँ
वहीँ पास में एक नाला बहता है
नाले के पार एक अलग दुनिया बसती है
इस पार से एकदम जुदा

इस पार घर नहीं हैं
बंगले हैं
बड़ी कारें हैं
लान हैं
रोज धुलने वाली चहारदीवारी है

नाले के उस पार भी
घर तो नहीं हैं
झोपड़ियाँ हैं एक दूसरे से लगी हुई
लान तो छोडिये
गमले भी नदारद हैं
रखी हैं साइकिल
पास ही एक हाथ ठेला खड़ा है
वह दिन में दुकानदारी के काम आता है
और रात में उसपर
एक दंपत्ति सो जाते हैं
मैं इसे देखने का अभ्यस्त हो गया हूँ

फर्क दीखता है
इस पार और उस पार में

इसपार लोगों के घर इतने ऊंचे हैं की
ऊपर वाले नीचे वालों को जानते ही नहीं
लेकिन दोनों के बीच एक पुल है
जिसे पार कर रोज आती है
सुमी
बर्तन पोंछा करने
उसे रहती है दोनों संसारों की खबर

चैनल और अखबार वाले ‘धौनी’ का नाम भी सही नहीं लिखते?


मिथिलेश कुमार

देश के गिनती के अखबारों को छोड़कर लगभग सभी समाचार पत्र-पत्रिकाएं और और चौबीसो घंटे चलने वाले समाचार चैनल टीम इंडिया के कप्तान महेंद्रसिंह धौनी का नाम गलत लिखते हैं। दैनिक हिंदुस्तान महेंद्र सिंह धौनी का सही नाम लिखने वाला देश का एक अन्य अखबार बन गया है। इसके पहले दैनिक जागरण और प्रभात खबर ने महेंद्र सिंह धौनी का सही नाम लिखने का निर्णय किया था। संभव है सही नाम लिखने वालों में देश के कुछ और अखबार और पत्रिकाएं शामिल हों लेकिन अन्य पत्र-पत्रिकाएं सही नाम लिखना कब सिखेंगे? किसी भी नाम को गलत लिखना कहां तक सही है? क्या गलत लिखने को सही कहा जा सकता है?

महेंद्र सिंह धौनी कोई ऐसा नाम नहीं है जिससे लोग अपरिचित हों। यह किसी अखबार के लिए लगभग रोज छपने वाला नाम है और यही नहीं यह नाम टाइम की हाल ही जारी सूची में दुनिया के 100 प्रभावशाली लोगों में शामिल है। भारतीय क्रिकेट कप्तान के नाम को दैनिक जागरण, प्रभात खबर और हिंदुस्तान के अलावा लगभग अन्य सभी पत्र-पत्रिकाएं महेंद्र सिंह धोनी लिखते हैं जबकि धौनी खुद कह चुके हैं कि उनका नाम महेंद्र सिंह धौनी है और यही लिखा जाना चाहिए। पता नहीं अखबार और चैनल वाले किसी के नामों के साथ खिलवाड़ करना कब तक जारी रखेंगे? वह भी जानबूझकर? क्या इसके लिए धौनी को अखबारों और चैनलों में इस बात का विज्ञापन देना होगा कि उनका नाम महेंद्र सिंह धौनी लिखा जाए?

अखबार और चैनलों में लिखने वाले लोग ही सोंचें कि अगर कोई उनका नाम गलत लिखे तो उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी। शायद वे लिखने वाले को कह दें कि आपको तो सही से एक नाम लिखना भी नहीं आता लेकिन उसका क्या, जो गलती रोज होती है या छपती है। क्या इसे यह माना जाए कि यह जान बूझकर की जाने वाली रोज की गलती है या यह माना जाए कि एक बार गलती कर दी तो उसे ही रोज लिखो ताकि बार- बार कहने से झूठ भी सच जैसा हो जाए? या स्टाइल सीट के आड़ में यह छूट ली जा सकती है? शायद धौनी के साथ भी यही हुआ है।

यह गलती सिर्फ महेंद्र सिंह धौनी तक सीमित नहीं है। क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले सचिन के नाम के साथ भी ऐसा है। न्यूज एजेंसी भाषा और वार्ता सहित दैनिक हिंदुस्तान, अमर उजाला, पत्रिका, दैनिक जागरण और नई दुनिया जहां इसे सचिन तेंदुलकर लिखते हैं वहीं दैनिक भास्कर, प्रभात खबर और नव भारत टाइम्स इसे सचिन तेंडुलकर लिखते हैं। ऐसा कई बार देखने को मिलता है कि एक ही खिलाड़ी का नाम कई तरह से लिखा जाता है। हद तो तब हुई जब आईपीएल में सितारा बनकर उभरे मुंबई इंडियन के बल्लेबाज को पॉल वाल्थेटी को लगभग सभी अखबारों में अपने अंदाज में लिखा। कई बार तो नाम पढ़ने के बाद खुद उलझन हो जाती है कि किस नाम को सही मानें और किसे गलत? आईपीएल में कई सितारे हैं जिनका नाम अलग-अलग अखबारों में भिन्न भिन्न तरीके से लिखा हुआ मिल जाएगा। आखिर इसका हल क्या है?

ऐसा नहीं है यह सिर्फ क्रिकेट तक सीमित है। ऐसा टेनिस, फुटबॉल, बैडमिंटन और अन्य खेलों में भी देखने को मिलता है। बैंडमिंटन की प्रसिद्ध खिलाड़ी साइना नेहवाल को ही आप नई दुनिया और हिंदुस्तान में सायना और दैनिक भास्कर में साइना नेहवाल पढ़ सकते हैं। टेनिस में तो विदेशी खिलाडियों के नाम सभी अपनी सुविधानुसार लिखते हैं। बात सिर्फ खेल जगत के नामों तक सीमित नहीं है। जन लोकपाल विधेयक के लिए चर्चा में आए अण्णा हजारे हो या सुरेश कलमाडी उनके नामों के साथ ही अखबारों में ऐसा ही विरोधाभास दिखा। अण्णा को कई अखबारों ने अन्ना लिखा तो कुछ ने अण्णा। अभी हाल ही में जब सुरेश कलमाड़ी गिरफ्तार हुए तो उनकी खबर फ्रंट पेज लीड खबर बनी। और इसे भी किसी अखबार ने कलमाड़ी तो किसी ने कलमाडी लिखा। फेसबुक पर राकेश कुमार मालवीय ने जब पूछा सारे अख़बार कलमाड़ी लिख रहे हैं और भास्कर ने लिखा है कलमाडी.. सही क्या है तो सौमित्र राय का जवाब आया, जनाब, नर्मदा नदी को पार करते ही बिंदी का चलन खत्मा हो जाता है। कलमाडी ही शुद्ध है, कलमाड़ी नहीं।

नामों को लेकर एक गुजारिश यही की जा सकती है कि आज जब जन संचार के त्वरित साधनों के बीच हम काम कर रहे हैं, हमारे पास इसे सही करने के कई विकल्प मौजूद हैं तो क्या हम इसे सही नहीं कर सकते? नामों को कैसे लिखा जाए, इसको लेकर क्या एक राय कायम नहीं होनी चाहिए? पिछले कई सालों में हमने कई शहरों के नाम बदलते देखे हैं। कलकत्ता को कोलकाता होना या बंगलोर का बेंगलुरू होना या फिर बंबई का मुंबई होना और इन नामों में गलती नहीं की जा सकती, फिर लोगों के नामों को लिखने में इतनी विविधता कैसे स्वीकार की जा सकती है? शेक्सपियर ने भले ही कहा हो कि नाम में क्या रखा है लेकिन उसके नीचे भी उनका ही नाम आता है, किसी और का नहीं। मतलब साफ है, हर किसी के लिए अपना नाम महत्वपूर्ण है और उसे सही तरह से ही लिखा जाना चाहिए। देश के लोगों के नामों में भला ऐसी गलती क्यों स्वीकार की जा रही है?

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Tuesday, May 3, 2011

पारदर्शिता के लिए सूचना तकनीकी का उपयोग


मिथिलेश कुमार

सरकार आज जिन तीखे सवालों का सामना कर रही है उनमें से भ्रष्टाचार भी एक है और भ्रष्टाचार को समाप्त करने में मदद करने वाले उन सभी विकल्पों पर विचार किया जाना चाहिए जिससे इसे रोकने में मदद मिले।

पारदर्शिता और जवाबदेही वे दो चीजें हैं जिन्हें भ्रष्टाचार रोकने का एक विकल्प माना जा सकता है। तो क्या पारदर्शिता और सरकारी कामों की सुस्त रफ्तार को तेज करने के लिए सूचना तकनीकी का उपयोग नहीं किया जा सकता है, भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिए क्या इस तरह के उपाय नहीं किए जाने चाहिए जिससे एक पारदर्शी व्यवस्था को बढ़ावा मिले। आखिर वे कौन से विकल्प हो सकते हैं जो पारदर्शिता को बढ़ावा दे सकते हैं और सुस्त रफ्तार को तेज करने में सहायक हो सकते हैं?
भारत में इंटरनेट बहुत तेजी से विकास कर रहा है और इसकी पहुंच साल दर साल बढ़ती जा रही है। सूचना और संचार तकनीकी संबंधित मामलों पर संयुक्त राष्ट्र की नियामक संस्था इंटरनेशनल टेलेकम्यूनिकेशन यूनियन (आईटीयू) की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 1998 में महज 14 लाख इंटरनेट उपयोगकर्ता थे वहीं 2010 में यह संख्या बढ़कर आठ करोड़ दस लाख पहुंच गई है। भविष्य में उपयोगकर्ताओं की संख्या तेजी से बढ़ेगी। ऐसे में हमें सोचना होगा कि क्या सूचना तकनीकी का उपयोग भ्रष्टाचार के खिलाफ कैसे एक कारगर हथियार बन सकता है?
विधेयक में यह प्रावधान होना चाहिए कि यह कानून सूचना के अधिकार जैसा प्रभावी हो और विभागों और मंत्रालयों को डिजिटल होने के लिए बाध्य करे। इसके तहत सभी मंत्रालयों और विभागों के डिजिटल होने के लिए एक समय सीमा तय करना भी अनिवार्य करना होगा। क्योंकि इसके पहले वर्ष 2006 में संचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने नेशनल ई-गवर्नेंस प्लान का खाका तैयार किया था जिसमें सरकार की मुख्य सेवाओं को डिजिटल करना था। विभिन्न मंत्रालयों और विभागों ने 27 मिशन मोड प्रोजेक्ट की योजना बनाई थी लेकिन करीब चार साल बीत जाने के बाद भी उनमें से कई मिशन केवल योजना स्तर पर ही हैं।
इलेक्ट्रॉनिक सर्विस डिलीवरी बिल संचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री कपिल सिब्बल के उस सौ दिनी एजेंडे का हिस्सा है जो उन्होंने एक जनवरी 2010 को जारी किया था। तो क्या इस विधेयक को तैयार करने में कोई बाधा नहीं आएगी और इसे आसानी से तैयार कर लिया जाएगा? सरकारी अधिकारियों का यही तर्क होगा कि सेवाओं को ऑनलाइन करने पर आने वाले खर्च के मुकाबले इससे होने वाले फायदे कम होंगे। लेकिन डिजिटल होने का यह कम बड़ा फायदा होगा कि आम लोगों तक सेवाओं की पहुंच बढ़ेगी और यह लोगों के हित में होगा। उदाहरण के लिए 2009 की तुलना में 2010 में टैक्स ई-रिटर्न फाइल करने वालों की संख्या 67 प्रतिशत बढ़कर 51 लाख हो गई और यह इस तथ्य की पुष्टि करता है कि ऑनलाइन सेवाएं लोगों के बीच लोकप्रिय होंगी।
साथ ही इस विधेयक को तैयार करने के लिए आईटी एक्ट 2000 में भी संशोधन करना होगा। इस एक्ट में कहा गया है कि किसी भी सरकारी विभाग को अपनी सेवाएं ऑनलाइन करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। हालांकि आईटी एक्ट आने के बाद से उसमें संशोधन हो चुके हैं और इसमें एक और संशोधन कर इसे नए बिल के अनुसार बhttp://www.blogger.com/img/blank.gifनाया जा सकता है। इसके लिए सरकार की इच्छाशक्ति की दरकार होगी। यदि बिल पास होता है तो यह पारदर्शिता लाने में सहायक होगा। साथ ही सरकारी विभागों को अधिक प्रभावी और जवाबदेह बनाएगा।
यह बिल इतना अहम् है तो इससे जुड़ी चिंताएं भी स्वाभाविक हैं। सबसे अहम् चिंता सेवाओं के मेंटनेंस, साइबर सुरक्षा और डाटा सुरक्षित रखने की होगी। और यह वह क्षेत्र है जो आईटी में बड़ी संख्या में रोजगार उपलब्ध कराएगा। मतलब साफ है इससे आईटी कंपनियों के लिए राजस्व का एक नया स्रोत बनेगा। अभी तक हमारी आईटी कंपनियां आउटसोर्सिंग पर निर्भर हैं। विधेयक आने के बाद आईटी कंपनियों की निर्भरता काफी हद तक विदेशों से घटेगी और उन्हें देश में ही बहुत सारे प्रोजेक्ट मिलेंगे। यह देश के आईटी कर्मियों के लिए रोजगार के नए अवसर पैदा करेगा।

दैनिक समाचार पत्र देशबंधु में छपे इस आलेख की लिंक :

गांवों में डॉक्टरों का सपना


मिथिलेश कुमार

केंद्र सरकार ने एक ऐसे शॉर्ट टर्म कोर्स लाइसेंसिएट मेडिकल प्रैक्टिशनर (एलएमपी) की योजना का प्रस्ताव तैयार किया है जिससे ग्रामीण क्षेत्र में स्वास्थ्य सुविधाओं की व्याप्त समस्याओं का हल खोजा जा सके। सरकार ने शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में व्याप्त सुविधाओं की खाई को पाटने के लिए जिस गंभीरता का परिचय दिया है वह स्वागतयोग्य है, लेकिन यह प्रस्ताव सवालों के घेरे में है और इसके सभी पहलुओं पर चर्चा आवश्यक हो गई है।
भारत के गांवों में स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर सरकार को हमेशा आलोचनाओं का सामना करना पड़ता है क्योंकि देश के हर हिस्से में ग्रामीण स्वास्थ्य सुविधाओं की दशा चिंताजनक है। गांवों में उपलब्ध न्यूनतम सुविधाओं के बीच खस्ताहाल अस्पतालों से डॉक्टर्स अक्सर नदारद रहते हैं। बहुत से ऐसे अस्पताल हैं जो सिर्फ नर्स के सहारे चल रहे हैं। ऐसे अस्पतालों में डॉक्टर उपलब्ध कराने और स्वास्थ्य सुविधा मुहैया कराने के लिए केंद्र सरकार ने यह योजना बनाई है। क्या इससे ग्रामीण अस्पतालों में डॉक्टरों की कमी को दूर किया जा सकेगा या यह योजना शहरों और गांवों में स्वास्थ्य सुविधाओं के अंतर को पाटने की जगह और बढ़ाने का काम करेगी। सवाल ये भी है कि क्या यह योजना ग्रामीण क्षेत्रों में दोयम दर्जे की स्वास्थ्य सुविधा को औपचारिक नहीं बना देगी।
इस योजना के तहत साढ़े तीन साल के कोर्स का प्रस्ताव किया गया है। जिसके तहत डॉक्टरों को जिला अस्पतालों में प्रशिक्षित किया जाएगा। उसके बाद मेडिकल और सर्जरी में बैचलर डिग्री दी जाएगी। प्रशिक्षित डॉक्टर ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य करेंगे। इसका सिलेबस मेडिकल कोर्स के अनुसार ही रहेगा और इसमें से किडनी ट्रांसप्लांट, एंजियोग्राफी, एमआरआई और रेडियालॉजी जैसी चीजें हटाकर कोर्स अवधि को कम किया गया है। एलएमपी योजना के तहत ही तीन वर्षीय प्रशिक्षण का कार्यक्रम होगा जिसे पूरा करने के बाद डिप्लोमा प्रदान किया जाएगा और उन पर भी ग्रामीण स्वास्थ्य जरूरतों को पूरा करने का दारोमदार होगा। इस योजना की पृष्ठभूमि में सोच यही है कि इससे ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं के स्तर में मेट्रोपोलिटन इंडिया के बराबर ला दिया जाएगा। असल सवाल इस प्रस्ताव योजना से ग्रामीण भारत की स्थिति पर है और सरकार की मंशा पर है। क्या ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को शहरी क्षेत्रों की तरह स्वास्थ्य सुविधाएं प्राप्त करने का हक नहीं है? क्या यह सोच सरकार की दोहरे मानदंड को नहीं दर्शाती? क्या इससे यह नहीं कहा जा सकता कि यह योजना संविधान की मूल भावना समानता और मानवाधिकारों का उल्लंघन करती है।
सरकार एक बार फिर उसी पुरानी योजना को आजमाना चाहती है जबकि इस योजना की योजना की जगह ज्यादा अच्छा हल ये है कि हमें कुछ क्षेत्रों में और मेडिकल कॉलेज आरंभ करने की दरकार है। खासकर पूर्वोत्तर इलाकों में, बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, और झारखंड में जहां ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं में आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है। अभी भी देश में शिशु मृत्यु दर के मामले में मध्यप्रदेश पहले नंबर पर बना हुआ है जबकि मातृ मृत्यु दर में उत्तरप्रदेश शीर्ष स्थान पर है। देश में अभी लगभग 300 मेडिकल कॉलेज हैं जिनमें से 190 केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में हैं। उत्तरप्रदेश जिसकी आबादी 19 करोड़ है, वहां केवल 16 कॉलेज हैं। बिहार जिसकी जनसंख्या 9 करोड़ है वहां मात्र 8 कॉलेज हैं। राजस्थान में 8 करोड़ जनसंख्या और 8 कॉलेज हैं। मध्यप्रदेश में 8 करोड़ की जनसंख्या के बीच 12 कॉलेज हैं। यदि राज्य सरकारें सभी जिलों में मेडिकल कॉलेज खोलें तो देश में लगभग 600 कॉलेज होंगे फिर हर साल लगभग 75,000 एमबीबीएस ग्रेजुएट निकलेंगे।
योजना आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में डॉक्टरों की भारी कमी के बावजूद भारतीय डॉक्टर विदेशों में काम करने को तवाो देते हैं क्योंकि वहां वर्क लोड भी कम है। अमरीका, ब्रिटेन, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में लगभग 60,000 भारतीय फिजिशियन काम कर रहे हैं। ऑस्ट्रेलिया में 10,000 लोगों के बीच 249 डॉक्टर और कनाडा में 209 हैं। ब्रिटेन में यह आंकड़ा 166 हो जाता है और अमरीका में 548 है। ऐसे में भारत के मुकाबले महज 5 प्रतिशत वर्क लोड को डॉक्टर आसानी से प्राथमिकता देते हैं। भारत में फिलहाल 1700 लोगों के बीच एक डॉक्टर उपलब्ध है। यदि इनमें पारंपरिक चिकित्सा पध्दति से जुड़े डॉक्टरों को भी जोड़ दें तो यह अनुपात खिसककर 700 पर आ जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक 300 लोगों पर एक डॉक्टर होना चाहिए। इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए हमें किसी शॉर्ट कhttp://www.blogger.com/img/blank.gifट की बजाय स्थायी निदान ढूंढना होगा। भारत वैकल्पिक स्वास्थ्य व्यवस्थाओं के मामले में धनी देश है। यहां आयुर्वेद, सिध्द, यूनानी, होमियोपैथी जैसे कई चिकित्सा विकल्प उपलब्ध हैं। इस सभी क्षेत्रों में हजारों योग्य शिक्षित मेडिकल पेशेवर आसानी से मिल जाएंगे और ये सभी 4 साल से अधिक की ट्रेनिंग करके आए हैं। इस तरह से देखा जाए तो इन मेडिकल पेशेवरों की एक बड़ी कॉडर खड़ी की जा सकती है।
आज एक नर्स को भी अपने कोर्स के दौरान 4 साल की ट्रेनिंग से गुजरना पड़ता है जबकि प्रस्तावित बीआरएमएस कोर्स के लिए उससे भी कम से कम साढ़े तीन साल का समय रखा गया है। यानी एक नर्स बीआरएमएस कोर्स वालों से ज्यादा प्रशिक्षित होगी और यह स्थिति निश्चित ही अच्छी नहीं कही जा सकती।
दैनिक समाचार पत्र देशबंधु में छपा आलेख
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Thursday, March 17, 2011

रात का सपना

ग्राम पंचायत चुनाव स्थानीय स्तर की राजनीति का नायाब उदाहरण होता है लेकिन कुछ लोग इसे भी अपने लिए मौका मानकर भुना लेते हैं। सुटाई ने भी इसे भुनाया लेकिन कैसे?


ग्राम पंचायत चुनाव का वर्ष आने वाला था और इसकी धमक दिसंबर में ही दिखने लगी थी। गांव के घरों के बरामदे में, दीवार पर, बिजली के खंभों पर, स्कूल की दीवार पर और यहां तक हर उस जगह पर जहां पोस्टर चिपकाने की जगह थी, वह जगह नूतन वर्ष की मंगल कामनाओं के संदेशों से पट गई। संदेश की कुछ खास बातें थी मसलन केंद्रीय राजनीति में जैसा बताया जाता है ठीक उसी तरह पचपन वर्षीय मोटू तिवारी ने खुद को युवा नेता बताया था। पंचायत की सीट महिला के लिए आरक्षित थी। इसलिए पोस्टर पर मोटू तिवारी फोटो छोटी और उनकी पत्नी की तस्वीर उनसे डबल साइज में छपी थी। छापाखाना वाले ने मोटू तिवारी को दुबला और भावी प्रत्याशी सुंदर दर्शाया था। शायद यह चुनाव में युवाओं को आकर्षित करने के ख्याल से किया गया था।
ऐसे ही एक और पोस्टर था सुटाई राय का। सुटाई सचमुच युवा थे लेकिन वे नेता नहीं थे। फिर भी उन्होंने अपने पोस्टर पर युवा नेता का आम जुमला जोड़ दिया था। गांव के लंगड़ा और गबरू ने पोस्टर देखा था और शाम को पहुंच गए थे सुटाई से मिलने।
पूछ बैठे, क्यों भाई, चुनाव लड़ने जा रहे हो क्या?
पोस्टर लगवा दिया है। आखिर माजरा क्या है?
तुम्हें तो अपने मुहल्ले को छोड़कर और कोई जानता भी नहीं है। आखिर तुम ठहरे परदेशी आदमी साल भर बाद कुछ कमाकर आए तो पोस्टर छपवा दिया। चुनाव लड़ने का भूत कहां से आया।
सुटाई ने राज की बात बताई। कहा- देखो लंगड़ा तुम तो जानते ही हो। मैं साल भर बाद आया हूं और मैं ठहरा बहीर आदमी और मैं चाहता हूं कि मेरी शादी हो जाए तो पोस्टर अच्छा बहाना था। मैंने छपवा दिया है। उस पर मेरी फोटो है, लोग देखेंगे, चर्चा करेंगे। हो सकता है, मेरा निशाना ठीक बैठ जाए और बात पक्की हो जाए।
पोस्टर का असर हुआ। गांव में पोस्टर की चर्चा हुई और साथ ही चर्चा हुई अपना बहीरा सुटाई चुनाव लड़ने वाला है। अन्य प्रत्याशियों ने भी उससे संपर्क साधा और साथ ही उससे मिलने पहुंचे विवाह कराने में सिद्धहस्त पृथ्वी चौधरी। उन्होंने सुटाई से उसकी डिमांड पूछी और फिर योग्य वधू के लिए अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाए। दिमाग ने बिजली की करंट की रफ्तार से तुरंत एक छोर से दूसरे छोर तक दौड़ लगाई। साथ ही किसी कम्प्यूटर के सर्च ऑप्शन की तरह क्लिक करके उन्होंने पांच-सात नाम गिना डाले। फलां-फलां जगह लड़कियां है। सुटाई की भी लह गई। तीर निशाने पर लगा था। महज दो हफ्ते की मेहनत में पृथ्वी ने सुटाई की शादी तय करा दी।
उधर, प्रत्याशियों ने भी सुटाई से संपर्क कर उसके चुनाव लड़ने की संभावना का पूरा गणित लगाया। सुटाई ने भी अपना भाव टाइट किया। कहा देखो भाई मैं तो चुनाव पूरे मन से लड़ना चाहता हूं। मेरी बिरादरी की बात है। मैं उनका नेता बनूंगा। यह बात भी उसके सुटाई के खासमखास परमा ने जयघोष के साथ सुना दी। सुटाई अब हमारी बिरादरी का नेता बनेगा और इससे सबसे बड़ा खतरा नजर आया उनकी ही बिरादरी के एक अन्य नेता गेंदालाल को। उन्होंने सुटाई से सेटिंग की बात के लिए अपना दाहिना हाथ माने जाने वाले होरी को भेजा। होरी ने जाकर सुटाई से बात की। सुटाई ने अब पूरी और सच्ची बात खुलकर बताई। कहा देखो भाई गेंदालाल से जाकर कह दो पोस्टर छपवाने का जो खर्चा लगा है वही मिल जाए तो बात आई-गई हो जाएगी। और हुआ भी यही। सुटाई को पोस्टर छपवाने में लगा खर्च मिला और उसके चुनाव लड़ने की बात रात के सपने जैसे बात हो गई।