-मिथिलेश कुमार
वह स्वतंत्रता सेनानी एक्सप्रेस का रिजर्वेशन डिब्बा था और साइड की बर्थ पर एक दंपति के साथ उसके दो बच्चे भी थे। उनमें बिटिया की उम्र लगभग 6 वर्ष और बच्चे की 4 वर्ष थी। दोनों में एक क्षण के लिए भी ऐसा न था कि उनमें झगड़ा न हो रहा हो। बच्चों से परेशान मां ऊपर की बर्थ पर जाकर सो गई। अब बच्चों को संभालने की जिम्मेदारी पिता पर थी। दोनों खिड़की से बाहर झांक रहे थे। ट्रेन आगे जा रही थी। शहर, गांव, मुहल्ले, खेत, पेड़ पौधे, मवेशी सब पीछे छूट रहे थे। तभी आइसक्रीम वाला आया। बच्चे ने आइसक्रीम खाने जिद की। उसके साथ उसकी बहन ने भी मिन्नत की। उसे भी आइसक्रीम चाहिए। पिता ने बच्चे को आइसक्रीम दे दी और बच्ची की बात अनसुनी कर दी। बच्ची कातर आंखों से आइसक्रीम वाले को देख रही थी। शायद उस पर वह रहम करे और कह दे कि एक आइसक्रीम तुम भी ले लो। मेरी तरफ से, पर यह सिर्फ उसकी सोच हो सकती थी। हकीकत में ऐसा न हुआ। आइसक्रीम वाला पैसे लेकर आगे निकल गया।
बच्चा आइसक्रीम में सराबोर होने लगा। कुछ उसकी सीट पर गिरती, कुछ उसकी किसी रेहड़ी से खरीद कर पहनाई गई शर्ट पर। पर उससे कोई अंतर न था। वह आइसक्रीम खाने के साथ इस बात में मगन था कि आइसक्रीम सिर्फ उसे मिली है। उसकी बहन को नहीं। वह बच्ची अब भी एक उम्मीद के साथ अपने भाई को देखती कि शायद उसे दया आ जाए और एक बार उसे भी वह ठंडी बरफ चाटने को मिल जाए। बच्चा शरारती था। बहन जैसे ही पास आने की कोशिश करती वह उल्टी तरफ मुड़ जाता। बहन फिर नाउम्मीद। और इतनी हिम्मत तो थी नहीं वह उससे जबरदस्ती ले ले।
बच्चा आइसक्रीम खाता कम था, दिखाता ज्यादा था और उससे भी ज्यादा सीट और अपने कपड़ों पर गिरा रहा था। पिता की आंखों में शायद एक विजयी भाव था। बच्चा मजे से खा रहा है और खुश हो रहा है। बच्ची मिन्नत भरी आंखों से पिता पर भी गुस्सा कर रही थी। उसे क्यों नहीं दी गई। बाप क्या कहता, क्योंकि उसे कोई अफसोस नहीं था। फिर भी उसने बच्ची को दिलासा दिया, जब थोड़ी सी बचेगी तब खा लेना। लड़की ने कहा नहीं, अब तो उसे पूरी ही चाहिए। नई चाहिए। पिता का बच्ची के प्रति दायित्व बोध जगा, कहा आने दो आइसक्रीम वाले को फिर तुम्हें अलग से एक पूरी आइसक्रीम दिला दूंगा।
बच्ची को कुछ उम्मीद जगी। वह उम्मीद उसकी जीत की थी लेकिन उस जीत को आना अभी बाकी था। आइसक्रीम खत्म होने की कगार पर आ गई और बच्ची ने भी अब उस आइसक्रीम को न छूने का प्रण किया। आइसक्रीम खत्म होते ज्यादा वक्त नहीं लगा और लेकिन आइसक्रीम वाला नहीं आया। हां, तभी एक फ्रूटी वाला जरूर आ गया।
अब बच्ची की बारी थी। उसकी आंखों में चमक थी और विश्वास भी। उसने अपनी फ्राक के नीचे पैंट में छुपाकर कुछ सिक्के रखे थे। उसने सारे सिक्के उस फ्रूटी वाले के हाथ में रख दिए। फ्रूटी वाले ने सिक्कों को देखा। तब तक बाप ने भी एक दस का नोट उसके हाथ में पकड़ा दिया था। उसने बच्ची को पहले फ्रूटी दी और फिर सिक्के में से सिर्फ दो रखकर बाकी उसने बच्ची को वापस कर दिए। बच्ची खुश थी उसने पैसे को जल्दी-जल्दी रखा। फ्रूटी में झट से सुड़कने के लिए पाइप लगाई। बच्चे की तरफ देखे बिना उसे खींचना शुरू कर दिया। उसे जल्दी थी कि शायद उसे भी बच्चे को न दे दिया जाए, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बच्चा मुंह ताकता रह गया। बच्ची विजयी मुस्कान के साथ फ्रूटी के डिब्बे की अंतिम बूंद गटक रही थी।
bahut hi sundarta ke saath naayab shabdon mein buni kahani...jaise jaise padhte jao utsukta badhti hi jaati hai! Bachpan k din yaad aa gaye
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