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Tuesday, May 3, 2011
गांवों में डॉक्टरों का सपना
मिथिलेश कुमार
केंद्र सरकार ने एक ऐसे शॉर्ट टर्म कोर्स लाइसेंसिएट मेडिकल प्रैक्टिशनर (एलएमपी) की योजना का प्रस्ताव तैयार किया है जिससे ग्रामीण क्षेत्र में स्वास्थ्य सुविधाओं की व्याप्त समस्याओं का हल खोजा जा सके। सरकार ने शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में व्याप्त सुविधाओं की खाई को पाटने के लिए जिस गंभीरता का परिचय दिया है वह स्वागतयोग्य है, लेकिन यह प्रस्ताव सवालों के घेरे में है और इसके सभी पहलुओं पर चर्चा आवश्यक हो गई है।
भारत के गांवों में स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर सरकार को हमेशा आलोचनाओं का सामना करना पड़ता है क्योंकि देश के हर हिस्से में ग्रामीण स्वास्थ्य सुविधाओं की दशा चिंताजनक है। गांवों में उपलब्ध न्यूनतम सुविधाओं के बीच खस्ताहाल अस्पतालों से डॉक्टर्स अक्सर नदारद रहते हैं। बहुत से ऐसे अस्पताल हैं जो सिर्फ नर्स के सहारे चल रहे हैं। ऐसे अस्पतालों में डॉक्टर उपलब्ध कराने और स्वास्थ्य सुविधा मुहैया कराने के लिए केंद्र सरकार ने यह योजना बनाई है। क्या इससे ग्रामीण अस्पतालों में डॉक्टरों की कमी को दूर किया जा सकेगा या यह योजना शहरों और गांवों में स्वास्थ्य सुविधाओं के अंतर को पाटने की जगह और बढ़ाने का काम करेगी। सवाल ये भी है कि क्या यह योजना ग्रामीण क्षेत्रों में दोयम दर्जे की स्वास्थ्य सुविधा को औपचारिक नहीं बना देगी।
इस योजना के तहत साढ़े तीन साल के कोर्स का प्रस्ताव किया गया है। जिसके तहत डॉक्टरों को जिला अस्पतालों में प्रशिक्षित किया जाएगा। उसके बाद मेडिकल और सर्जरी में बैचलर डिग्री दी जाएगी। प्रशिक्षित डॉक्टर ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य करेंगे। इसका सिलेबस मेडिकल कोर्स के अनुसार ही रहेगा और इसमें से किडनी ट्रांसप्लांट, एंजियोग्राफी, एमआरआई और रेडियालॉजी जैसी चीजें हटाकर कोर्स अवधि को कम किया गया है। एलएमपी योजना के तहत ही तीन वर्षीय प्रशिक्षण का कार्यक्रम होगा जिसे पूरा करने के बाद डिप्लोमा प्रदान किया जाएगा और उन पर भी ग्रामीण स्वास्थ्य जरूरतों को पूरा करने का दारोमदार होगा। इस योजना की पृष्ठभूमि में सोच यही है कि इससे ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं के स्तर में मेट्रोपोलिटन इंडिया के बराबर ला दिया जाएगा। असल सवाल इस प्रस्ताव योजना से ग्रामीण भारत की स्थिति पर है और सरकार की मंशा पर है। क्या ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को शहरी क्षेत्रों की तरह स्वास्थ्य सुविधाएं प्राप्त करने का हक नहीं है? क्या यह सोच सरकार की दोहरे मानदंड को नहीं दर्शाती? क्या इससे यह नहीं कहा जा सकता कि यह योजना संविधान की मूल भावना समानता और मानवाधिकारों का उल्लंघन करती है।
सरकार एक बार फिर उसी पुरानी योजना को आजमाना चाहती है जबकि इस योजना की योजना की जगह ज्यादा अच्छा हल ये है कि हमें कुछ क्षेत्रों में और मेडिकल कॉलेज आरंभ करने की दरकार है। खासकर पूर्वोत्तर इलाकों में, बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, और झारखंड में जहां ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं में आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है। अभी भी देश में शिशु मृत्यु दर के मामले में मध्यप्रदेश पहले नंबर पर बना हुआ है जबकि मातृ मृत्यु दर में उत्तरप्रदेश शीर्ष स्थान पर है। देश में अभी लगभग 300 मेडिकल कॉलेज हैं जिनमें से 190 केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में हैं। उत्तरप्रदेश जिसकी आबादी 19 करोड़ है, वहां केवल 16 कॉलेज हैं। बिहार जिसकी जनसंख्या 9 करोड़ है वहां मात्र 8 कॉलेज हैं। राजस्थान में 8 करोड़ जनसंख्या और 8 कॉलेज हैं। मध्यप्रदेश में 8 करोड़ की जनसंख्या के बीच 12 कॉलेज हैं। यदि राज्य सरकारें सभी जिलों में मेडिकल कॉलेज खोलें तो देश में लगभग 600 कॉलेज होंगे फिर हर साल लगभग 75,000 एमबीबीएस ग्रेजुएट निकलेंगे।
योजना आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में डॉक्टरों की भारी कमी के बावजूद भारतीय डॉक्टर विदेशों में काम करने को तवाो देते हैं क्योंकि वहां वर्क लोड भी कम है। अमरीका, ब्रिटेन, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में लगभग 60,000 भारतीय फिजिशियन काम कर रहे हैं। ऑस्ट्रेलिया में 10,000 लोगों के बीच 249 डॉक्टर और कनाडा में 209 हैं। ब्रिटेन में यह आंकड़ा 166 हो जाता है और अमरीका में 548 है। ऐसे में भारत के मुकाबले महज 5 प्रतिशत वर्क लोड को डॉक्टर आसानी से प्राथमिकता देते हैं। भारत में फिलहाल 1700 लोगों के बीच एक डॉक्टर उपलब्ध है। यदि इनमें पारंपरिक चिकित्सा पध्दति से जुड़े डॉक्टरों को भी जोड़ दें तो यह अनुपात खिसककर 700 पर आ जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक 300 लोगों पर एक डॉक्टर होना चाहिए। इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए हमें किसी शॉर्ट कhttp://www.blogger.com/img/blank.gifट की बजाय स्थायी निदान ढूंढना होगा। भारत वैकल्पिक स्वास्थ्य व्यवस्थाओं के मामले में धनी देश है। यहां आयुर्वेद, सिध्द, यूनानी, होमियोपैथी जैसे कई चिकित्सा विकल्प उपलब्ध हैं। इस सभी क्षेत्रों में हजारों योग्य शिक्षित मेडिकल पेशेवर आसानी से मिल जाएंगे और ये सभी 4 साल से अधिक की ट्रेनिंग करके आए हैं। इस तरह से देखा जाए तो इन मेडिकल पेशेवरों की एक बड़ी कॉडर खड़ी की जा सकती है।
आज एक नर्स को भी अपने कोर्स के दौरान 4 साल की ट्रेनिंग से गुजरना पड़ता है जबकि प्रस्तावित बीआरएमएस कोर्स के लिए उससे भी कम से कम साढ़े तीन साल का समय रखा गया है। यानी एक नर्स बीआरएमएस कोर्स वालों से ज्यादा प्रशिक्षित होगी और यह स्थिति निश्चित ही अच्छी नहीं कही जा सकती।
दैनिक समाचार पत्र देशबंधु में छपा आलेख
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