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Tuesday, May 10, 2011
दो संसार
जहाँ मैं रहता हूँ
वहीँ पास में एक नाला बहता है
नाले के पार एक अलग दुनिया बसती है
इस पार से एकदम जुदा
इस पार घर नहीं हैं
बंगले हैं
बड़ी कारें हैं
लान हैं
रोज धुलने वाली चहारदीवारी है
नाले के उस पार भी
घर तो नहीं हैं
झोपड़ियाँ हैं एक दूसरे से लगी हुई
लान तो छोडिये
गमले भी नदारद हैं
रखी हैं साइकिल
पास ही एक हाथ ठेला खड़ा है
वह दिन में दुकानदारी के काम आता है
और रात में उसपर
एक दंपत्ति सो जाते हैं
मैं इसे देखने का अभ्यस्त हो गया हूँ
फर्क दीखता है
इस पार और उस पार में
इसपार लोगों के घर इतने ऊंचे हैं की
ऊपर वाले नीचे वालों को जानते ही नहीं
लेकिन दोनों के बीच एक पुल है
जिसे पार कर रोज आती है
सुमी
बर्तन पोंछा करने
उसे रहती है दोनों संसारों की खबर
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बहुत ही सुंदर मिथिलेश..एक कशक सी रह गयी..उम्दा लिखा...तुम कवितायेँ और भी क्यूँ लिखते ...
ReplyDeleteधन्यवाद, विजेंद्र जी!
ReplyDeleteaapki is rachna ke liye mere zehan men jo pahala hi shabd kaundha wo tha, umda, fir maine upar wala comment dekha to usmen bhi उम्दा likha mil gaya. uchcha stariya rachana. umeed karta hoon kuchh aur rachanayen padane ka awasar aapki lekhani ki badaulat mujhe naseeb hoga. Shriday Kavivar ji dhanyawad!
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