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Monday, May 23, 2011
एक नए देश का जन्म
किसी नए देश के गठन का जिक्र सुनते ही आपके मन में सबसे पहला सवाल क्या आता है? शायद यह कि नए देश को इसके लिए क्या करना पड़ता होगा? इसी साल जुलाई में सूडान दो हिस्सों में बंटने वाला है। उत्तरी सूडान से अलग होकर दक्षिणी सूडान दुनिया का सबसे नया देश बनने वाला है। आइए जानते हैं दक्षिणी सूडान को नए देश के लिए कहां-कहां और कौन-कौन से बदलाव करने होंगे?
एक नए देश के गठन के साथ ही अनेक नई चीजों की पहल करनी पड़ती है। इसके लिए सबसे पहला कदम होता है उस नए देश का राष्ट्रगान। इसके बाद अन्य बदलाव हैं - अंतरराष्ट्रीय टेलीफोन डायलिंग कोड, देश के लिए इंटरनेट सफ्रीक्स, हवाई ट्रैफिक कंट्रोल, ट्रेड ट्रैफिक। एक नए देश के लिए सर्वाधिक कड़ी चुनौती होती है विदेश सेवा की स्थापना और विभिन्न देशों में राजनयिकों की नियुक्ति की।
ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना में सबसे पुराना राजनयिक प्रशिक्षण केंद्र है और इसने दक्षिणी सूडान को सहायता देने की पेशकश की है। इसके बाद चुनौती आती है राजनयिकों की मान्यता की। दुनिया में 190 से अधिक देशों के साथ संबंध स्थापित करना एक नए देश के लिए आसान नहीं है। 1991 में स्वतंत्र हुए इस्टोनिया के संबंध अभी तक दुनिया के 170 देशों से ही बन सके हैं और इसमें 2010 में सबसे नया संबंध हैती के साथ विकसित हुआ।
इसके बाद बारी आती है संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता की। नए देश के निर्माण के साथ ही उस देश का नाम संयुक्त राष्ट्र के दस्तावेजीकरण प्रभाग को जाता है और वहां से लोकप्रिय और औपचारिक नाम के रूप में उस देश का नाम 6 भाषाओं में छपकर सभी संयुक्त राष्ट्र सदस्य देशों के बीच भेजा जाता है।
नए देश का नाम जेनेवा स्थित इंटरनेशनल स्टैंडर्ड ऑर्गेनाइजेशन की डायरेक्ट्री के लिए भेजा जाता है जहां से उस देश के लिए एक कोड नेम मिलता है। जैसे अफगानिस्तान के लिए एएफजी और जिम्बाब्वे के लिए जेडडब्ल्यूई। यह कोड नए राज्य हेतु अंतरराष्ट्रीय पदों के लिए सहायक होता है। साथ ही यह नागरिकों के इमेग्रेशन में काम आता है।
नेशनल टॉप लेबल डोमेन का वेब एड्रेस में उपयोग होता है। जैसे फ्रांस के लिए डॉट एफआर या जर्मनी के लिए डॉट डीई। साउथ सूडान के लिए यह सफीक्स डॉट एसएस हो सकता है।
अंतरराष्ट्रीय टेलीफोन कोड संयुक्त राष्ट्र की जेनेवा स्थित एजेंसी इंटरनेशनल टेलीकम्यूनीकेशन यूनियन (आईटीयू) द्वारा आवंटित किया जाता है। अभी सूडान का डायलिंग कोड +249 है। इसकी जगह दक्षिणी सूडान के लिए नया डायलिंग कोड होगा। इरिट्रिया अफ्रीका का नया देश है और उसका डायलिंग कोड +291 है। इसलिए दक्षिणी सूडान का डायलिंग कोड +292 हो सकता है। आईटीयू रेडियो वेबलेंथ भी तय करता है।
इंटरनेशनल सिविल एविएशन ऑर्गेनाइजेशन हवाई यातायात में तो कोई सहायता नहीं करेगा लेकिन नई सरकार को मशीन से पढ़ने वाले पासपोर्ट देने में मदद करेगा। यूनिवर्सल पोस्टल यूनियन देश को विदेशों में चिट्ठियों के लिए नए पोस्टेज स्टाम्प की अनुमति देता है। दक्षिणी सूडान में कोई तटरेखा नहीं है लेकिन यह इंटरनेशनल मेरिनटाइम ऑर्गेनाइजेशन के साथ जुड़ सकता है। (कंटेंट- इकोनामिस्ट और फोटो - गार्जियन से साभार)
दक्षिणी सूडान का उदय और चुनौतियां
-मिथिलेश कुमार
तीन दिनों की लगातार लड़ाई के बाद उत्तरी सूडान ने दावा किया है कि उसने दक्षिणी सूडान की सीमा पर स्थित तेल समृद्ध विवादित शहर आबिए पर कब्जा कर लिया है और इसके साथ ही एक नया सवाल उठ खड़ा हुआ है कि क्या सूडान में एक बार फिर गृह युद्ध आरंभ हो गया है क्योंकि इससे पहले दुनिया के सबसे नवीनतम देश के गठन का रास्ता साफ हो गया है।
इसी साल 9 जुलाई को उत्तरी सूडान से अलग होकर दक्षिणी सूडान नामक एक नया राष्ट्र बनेगा। दक्षिण अफ्रीका के इस नए देश की राजधानी यूबा होगी। दक्षिणी सूडान दुनिया का सबसे नया और 193वां देश होगा। इस नवीनतम राष्ट्र के उदय का रास्ता कैसे साफ हुआ?
यह संभव हुआ इसी साल 9 से 15 जनवरी के बीच हुए जनमत संग्रह की वजह से जिसमें लगभग 99 फीसदी से अधिक लोगों ने उत्तरी सूडान से अलग होने का निर्णय किया। सूडान दो हिस्सों में न बंटे ऐसा मानने वाले बहुत कम लोग थे। इसमें सिर्फ लगभग 16 हजार लोगों ने एकीकृत सूडान के पक्ष में मतदान किया। एक हफ्ते तक चले मतदान के दौरान अड़तीस लाख से अधिक लोगों ने वोट डाले गए। जनमत संग्रह के लिए कीनिया, आस्ट्रेलिया और ब्रिटेन समेत आठ मतदान केंद्र बनाए गए। उत्साह ऐसा था कि दक्षिणी सूडान के 60 हज़ार से ज़्यादा विस्थापित लोगों ने इस मतदान में हिस्सा लिया। अब सवाल है आखिर वह कौन सी वजह रही जिसने सूडान को विभाजित करने के लिए जनमत संग्रह के लिए मजबूर किया और देश दो हिस्सों में बंटने जा रहा है।
दरअसल सूडान की खारतुम सरकार और सूडान पीपल्स लिबरेशन आर्मी के बीच 2005 में हुए शांति समझौते में तय किया गया था कि इसके दक्षिणी हिस्से को तुरंत स्वायत्तता दी जाए और 2011 की शुरुआत में जनमत संग्रह से तय कर लिया जाए कि क्या वहां रह रहे लोग अलग देश के पक्ष में हैं या नहीं? इसी पर अमल करते हुए जनमत संग्रह कराया गया। आखिर इस जनमत संग्रह पर सहमति कैसे बनी और इसकी जरूरत क्यों पड़ी?
असल में सूडान भौगोलिक रूप से भी दो हिस्सों में बंटा हुआ है। उत्तरी सूडान और दक्षिणी सूचना। दक्षिणी सूडान दुनिया के सबसे अविकसित क्षेत्रों में से एक माना जाता है और वहां के लोग लगातार आरोप लगाते रहे हैं कि उन्हें उत्तरी सूडान के सरकार के हाथों लगातार दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ा है। उत्तर और दक्षिण क्षेत्र के बीच लगातार संघर्ष का भी लंबा इतिहास रहा है और इस संघर्ष की मुख्य रूप से दो वजहें रही हैं पहली धार्मिक और दूसरी आर्थिक। देश के उत्तर में अरबी मुसलमान बसते हैं और दक्षिण में एनमिस्ट व ईसाई निवास करते हैं। नस्ली मुद्दे पर इन दोनों क्षेत्र के लोगों के बीच लगातार हिंसक भिड़ंतें होती रही हैं। इस देश को पहले 1955 से 1972 तक और फिर 1983 से 2005 तक दो बार गृह युद्ध का सामना करना पड़ा है और दूसरे गृह युद्ध में ही करीब 25 लाख लोग मारे गए और लगभग 50 लाख लोगों को विस्थापित होना पड़ा।
इससे अलग प्राकृतिक संसाधन के रूप में पेट्रोलियम और कच्चे तेल के भंडार सूडान में भरे पड़े हैं और सूडान प्रतिवर्ष अरबों डॉलर के तेल का निर्यात करता है। दक्षिणी सूडान इसमें से 80 प्रतिशत उत्पादन करता है लेकिन राजस्व के रूप में उन्हें केवल 50 प्रतिशत ही मिलता है। उत्तरी और दक्षिणी सूडान के बीच राजस्व का बंटवारा भी संघर्ष की एक वजह रहा है। इन लड़ाइयों के बीच कर्नल उमर अल बशिर ने 1989 में रक्तविहिन तख्तापलट कर सत्ता हथियाई थी। इसी बीच वहां दारफुर जैसा संकट भी खड़ा हुआ, जिसमें आरोप है कि सूडान की खारतुम सरकार ने अरब छापामारों की फौज खड़ी करके देश के पश्चिम में स्थित इस इलाके में ऐसा भयानक कत्लेआम कराया कि वह नस्ली रक्तपात की एक मिसाल बन गया। भयावह गृहयुद्ध के बीच अंतरराष्ट्रीय दवाब के बाद सूडान में शांति समझौता हुआ जिसके बाद जनमत संग्रह और अलग राष्ट्र की पटकथा तैयार हुई। तो अब अलग राष्ट्र बनने से इस देश के सामने चुनौतियां क्या होंगी?
सूडान उत्तरी अफ्रीका में स्थित है और क्षेत्रफल के लिहाज से दुनिया का दसवां बड़ा देश है। दुनिया की सबसे लंबी नदी नील देश को पूर्वी और पश्चिमी हिस्सों में विभाजित करती है जबकि व्हाइट नील इसे उत्तरी और दक्षिणी हिस्सों में बांटती है। माना जा रहा है कि दक्षिण सूडान के रूप में नए देश का उदय दशकों से जारी सिविल वॉर के खात्मे पर अंतिम मुहर लगाएगा। इस जनमत संग्रह के ज़रिए उत्तर और दक्षिणी सूडान अलग अलग हो जाएंगे और एक लंबे गृह युद्ध का अंत होगा जिसके बाद दोनों क्षेत्रों की अलग-अलग देशों के रुप में पहचान बन सकेगी।
हालांकि जनमत संग्रह के बाद भी दोनों क्षेत्रों के बीच कई और महत्वपूर्ण मुद्दों का निपटारा होना बाक़ी है। सीमा, ऋण और तेल संसाधन जैसे मुद्दे काफ़ी जटिल हैं और दुनिया के सबसे नए देश का निर्माण बहुत आसान नहीं होगा। दक्षिणी और उत्तरी सूडान के बीच आर्थिक संसाधनों के बंटवारे को लेकर वार्ताएं बाकी हैं। ये वार्ताएं कठिन होंगी क्योंकि सूडान में तेल का विशाल भंडार है। उत्तरी इलाक़े में लोग विभाजन को लेकर चिंतित हैं क्योंकि सूडान के अधिकतर तेल संसाधन दक्षिणी सूडान में हैं। यही नहीं तेल समृद्ध क्षेत्र आबिए पर भी फैसला होना बाकी है और यह सवाल अभी भी है कि इसकी विशेष प्रशासनिक स्थिति बनाए रखी जाएगी या इसे दक्षिणी सूडान में शामिल किया जाएगा।
दूसरे पड़ोसी राज्य भी इस देश की राजनीतिक स्थिति से प्रभावित होंगे। इसके उत्तर में मिस्र, उत्तर पूर्व में लाल सागर, पूर्व में इरिट्रया और इथियोपिया, दक्षिण पूर्व में युगांडा और केन्या, दक्षिण पश्चिम में कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य और मध्य अफ्रीकी गणराज्य, पश्चिम में चाड और पश्चिमोत्तर में लीबिया स्थित है। केन्या, इथोपिया और युगांडा नील नदी के पानी पर जूबा के साथ सौदा करना चाहते हैं। वहीं दक्षिण के तेल भंडारों और उत्तर के खेती वाली जमीनों में भी विदेशी शक्तियों की हिस्सेदारी है। साझेदार देश नए सूडान की ओर आशा भरी नजरों से देख रहे हैं क्योंकि अभी दक्षिणी सूडान के लिए यह शुरुआत है। उसके समक्ष नया संविधान बनाने की चुनौती है। वर्तमान सरकार को इसका ब्लूप्रिंट तैयार करना होगा। एक बार यह तैयार हो जाए तो फिर चुनावों का रास्ता भी साफ हो जाएगा। दशकों से गृहयुद्ध झेल रहे इस देश में परिवहन व्यवस्था बदहाल है। पूरी दुनिया को नए सूडान के सृजन में सहयोग करना होगा क्योंकि वहां शांति और स्थिरता विश्व शांति के हित में होगी और सूडान की करोड़ों जनता की जिंदगी भी आसान करेगी।
Tuesday, May 10, 2011
दो संसार
जहाँ मैं रहता हूँ
वहीँ पास में एक नाला बहता है
नाले के पार एक अलग दुनिया बसती है
इस पार से एकदम जुदा
इस पार घर नहीं हैं
बंगले हैं
बड़ी कारें हैं
लान हैं
रोज धुलने वाली चहारदीवारी है
नाले के उस पार भी
घर तो नहीं हैं
झोपड़ियाँ हैं एक दूसरे से लगी हुई
लान तो छोडिये
गमले भी नदारद हैं
रखी हैं साइकिल
पास ही एक हाथ ठेला खड़ा है
वह दिन में दुकानदारी के काम आता है
और रात में उसपर
एक दंपत्ति सो जाते हैं
मैं इसे देखने का अभ्यस्त हो गया हूँ
फर्क दीखता है
इस पार और उस पार में
इसपार लोगों के घर इतने ऊंचे हैं की
ऊपर वाले नीचे वालों को जानते ही नहीं
लेकिन दोनों के बीच एक पुल है
जिसे पार कर रोज आती है
सुमी
बर्तन पोंछा करने
उसे रहती है दोनों संसारों की खबर
चैनल और अखबार वाले ‘धौनी’ का नाम भी सही नहीं लिखते?
मिथिलेश कुमार
देश के गिनती के अखबारों को छोड़कर लगभग सभी समाचार पत्र-पत्रिकाएं और और चौबीसो घंटे चलने वाले समाचार चैनल टीम इंडिया के कप्तान महेंद्रसिंह धौनी का नाम गलत लिखते हैं। दैनिक हिंदुस्तान महेंद्र सिंह धौनी का सही नाम लिखने वाला देश का एक अन्य अखबार बन गया है। इसके पहले दैनिक जागरण और प्रभात खबर ने महेंद्र सिंह धौनी का सही नाम लिखने का निर्णय किया था। संभव है सही नाम लिखने वालों में देश के कुछ और अखबार और पत्रिकाएं शामिल हों लेकिन अन्य पत्र-पत्रिकाएं सही नाम लिखना कब सिखेंगे? किसी भी नाम को गलत लिखना कहां तक सही है? क्या गलत लिखने को सही कहा जा सकता है?
महेंद्र सिंह धौनी कोई ऐसा नाम नहीं है जिससे लोग अपरिचित हों। यह किसी अखबार के लिए लगभग रोज छपने वाला नाम है और यही नहीं यह नाम टाइम की हाल ही जारी सूची में दुनिया के 100 प्रभावशाली लोगों में शामिल है। भारतीय क्रिकेट कप्तान के नाम को दैनिक जागरण, प्रभात खबर और हिंदुस्तान के अलावा लगभग अन्य सभी पत्र-पत्रिकाएं महेंद्र सिंह धोनी लिखते हैं जबकि धौनी खुद कह चुके हैं कि उनका नाम महेंद्र सिंह धौनी है और यही लिखा जाना चाहिए। पता नहीं अखबार और चैनल वाले किसी के नामों के साथ खिलवाड़ करना कब तक जारी रखेंगे? वह भी जानबूझकर? क्या इसके लिए धौनी को अखबारों और चैनलों में इस बात का विज्ञापन देना होगा कि उनका नाम महेंद्र सिंह धौनी लिखा जाए?
अखबार और चैनलों में लिखने वाले लोग ही सोंचें कि अगर कोई उनका नाम गलत लिखे तो उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी। शायद वे लिखने वाले को कह दें कि आपको तो सही से एक नाम लिखना भी नहीं आता लेकिन उसका क्या, जो गलती रोज होती है या छपती है। क्या इसे यह माना जाए कि यह जान बूझकर की जाने वाली रोज की गलती है या यह माना जाए कि एक बार गलती कर दी तो उसे ही रोज लिखो ताकि बार- बार कहने से झूठ भी सच जैसा हो जाए? या स्टाइल सीट के आड़ में यह छूट ली जा सकती है? शायद धौनी के साथ भी यही हुआ है।
यह गलती सिर्फ महेंद्र सिंह धौनी तक सीमित नहीं है। क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले सचिन के नाम के साथ भी ऐसा है। न्यूज एजेंसी भाषा और वार्ता सहित दैनिक हिंदुस्तान, अमर उजाला, पत्रिका, दैनिक जागरण और नई दुनिया जहां इसे सचिन तेंदुलकर लिखते हैं वहीं दैनिक भास्कर, प्रभात खबर और नव भारत टाइम्स इसे सचिन तेंडुलकर लिखते हैं। ऐसा कई बार देखने को मिलता है कि एक ही खिलाड़ी का नाम कई तरह से लिखा जाता है। हद तो तब हुई जब आईपीएल में सितारा बनकर उभरे मुंबई इंडियन के बल्लेबाज को पॉल वाल्थेटी को लगभग सभी अखबारों में अपने अंदाज में लिखा। कई बार तो नाम पढ़ने के बाद खुद उलझन हो जाती है कि किस नाम को सही मानें और किसे गलत? आईपीएल में कई सितारे हैं जिनका नाम अलग-अलग अखबारों में भिन्न भिन्न तरीके से लिखा हुआ मिल जाएगा। आखिर इसका हल क्या है?
ऐसा नहीं है यह सिर्फ क्रिकेट तक सीमित है। ऐसा टेनिस, फुटबॉल, बैडमिंटन और अन्य खेलों में भी देखने को मिलता है। बैंडमिंटन की प्रसिद्ध खिलाड़ी साइना नेहवाल को ही आप नई दुनिया और हिंदुस्तान में सायना और दैनिक भास्कर में साइना नेहवाल पढ़ सकते हैं। टेनिस में तो विदेशी खिलाडियों के नाम सभी अपनी सुविधानुसार लिखते हैं। बात सिर्फ खेल जगत के नामों तक सीमित नहीं है। जन लोकपाल विधेयक के लिए चर्चा में आए अण्णा हजारे हो या सुरेश कलमाडी उनके नामों के साथ ही अखबारों में ऐसा ही विरोधाभास दिखा। अण्णा को कई अखबारों ने अन्ना लिखा तो कुछ ने अण्णा। अभी हाल ही में जब सुरेश कलमाड़ी गिरफ्तार हुए तो उनकी खबर फ्रंट पेज लीड खबर बनी। और इसे भी किसी अखबार ने कलमाड़ी तो किसी ने कलमाडी लिखा। फेसबुक पर राकेश कुमार मालवीय ने जब पूछा सारे अख़बार कलमाड़ी लिख रहे हैं और भास्कर ने लिखा है कलमाडी.. सही क्या है तो सौमित्र राय का जवाब आया, जनाब, नर्मदा नदी को पार करते ही बिंदी का चलन खत्मा हो जाता है। कलमाडी ही शुद्ध है, कलमाड़ी नहीं।
नामों को लेकर एक गुजारिश यही की जा सकती है कि आज जब जन संचार के त्वरित साधनों के बीच हम काम कर रहे हैं, हमारे पास इसे सही करने के कई विकल्प मौजूद हैं तो क्या हम इसे सही नहीं कर सकते? नामों को कैसे लिखा जाए, इसको लेकर क्या एक राय कायम नहीं होनी चाहिए? पिछले कई सालों में हमने कई शहरों के नाम बदलते देखे हैं। कलकत्ता को कोलकाता होना या बंगलोर का बेंगलुरू होना या फिर बंबई का मुंबई होना और इन नामों में गलती नहीं की जा सकती, फिर लोगों के नामों को लिखने में इतनी विविधता कैसे स्वीकार की जा सकती है? शेक्सपियर ने भले ही कहा हो कि नाम में क्या रखा है लेकिन उसके नीचे भी उनका ही नाम आता है, किसी और का नहीं। मतलब साफ है, हर किसी के लिए अपना नाम महत्वपूर्ण है और उसे सही तरह से ही लिखा जाना चाहिए। देश के लोगों के नामों में भला ऐसी गलती क्यों स्वीकार की जा रही है?
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Tuesday, May 3, 2011
पारदर्शिता के लिए सूचना तकनीकी का उपयोग
मिथिलेश कुमार
सरकार आज जिन तीखे सवालों का सामना कर रही है उनमें से भ्रष्टाचार भी एक है और भ्रष्टाचार को समाप्त करने में मदद करने वाले उन सभी विकल्पों पर विचार किया जाना चाहिए जिससे इसे रोकने में मदद मिले।
पारदर्शिता और जवाबदेही वे दो चीजें हैं जिन्हें भ्रष्टाचार रोकने का एक विकल्प माना जा सकता है। तो क्या पारदर्शिता और सरकारी कामों की सुस्त रफ्तार को तेज करने के लिए सूचना तकनीकी का उपयोग नहीं किया जा सकता है, भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिए क्या इस तरह के उपाय नहीं किए जाने चाहिए जिससे एक पारदर्शी व्यवस्था को बढ़ावा मिले। आखिर वे कौन से विकल्प हो सकते हैं जो पारदर्शिता को बढ़ावा दे सकते हैं और सुस्त रफ्तार को तेज करने में सहायक हो सकते हैं?
भारत में इंटरनेट बहुत तेजी से विकास कर रहा है और इसकी पहुंच साल दर साल बढ़ती जा रही है। सूचना और संचार तकनीकी संबंधित मामलों पर संयुक्त राष्ट्र की नियामक संस्था इंटरनेशनल टेलेकम्यूनिकेशन यूनियन (आईटीयू) की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 1998 में महज 14 लाख इंटरनेट उपयोगकर्ता थे वहीं 2010 में यह संख्या बढ़कर आठ करोड़ दस लाख पहुंच गई है। भविष्य में उपयोगकर्ताओं की संख्या तेजी से बढ़ेगी। ऐसे में हमें सोचना होगा कि क्या सूचना तकनीकी का उपयोग भ्रष्टाचार के खिलाफ कैसे एक कारगर हथियार बन सकता है?
विधेयक में यह प्रावधान होना चाहिए कि यह कानून सूचना के अधिकार जैसा प्रभावी हो और विभागों और मंत्रालयों को डिजिटल होने के लिए बाध्य करे। इसके तहत सभी मंत्रालयों और विभागों के डिजिटल होने के लिए एक समय सीमा तय करना भी अनिवार्य करना होगा। क्योंकि इसके पहले वर्ष 2006 में संचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने नेशनल ई-गवर्नेंस प्लान का खाका तैयार किया था जिसमें सरकार की मुख्य सेवाओं को डिजिटल करना था। विभिन्न मंत्रालयों और विभागों ने 27 मिशन मोड प्रोजेक्ट की योजना बनाई थी लेकिन करीब चार साल बीत जाने के बाद भी उनमें से कई मिशन केवल योजना स्तर पर ही हैं।
इलेक्ट्रॉनिक सर्विस डिलीवरी बिल संचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री कपिल सिब्बल के उस सौ दिनी एजेंडे का हिस्सा है जो उन्होंने एक जनवरी 2010 को जारी किया था। तो क्या इस विधेयक को तैयार करने में कोई बाधा नहीं आएगी और इसे आसानी से तैयार कर लिया जाएगा? सरकारी अधिकारियों का यही तर्क होगा कि सेवाओं को ऑनलाइन करने पर आने वाले खर्च के मुकाबले इससे होने वाले फायदे कम होंगे। लेकिन डिजिटल होने का यह कम बड़ा फायदा होगा कि आम लोगों तक सेवाओं की पहुंच बढ़ेगी और यह लोगों के हित में होगा। उदाहरण के लिए 2009 की तुलना में 2010 में टैक्स ई-रिटर्न फाइल करने वालों की संख्या 67 प्रतिशत बढ़कर 51 लाख हो गई और यह इस तथ्य की पुष्टि करता है कि ऑनलाइन सेवाएं लोगों के बीच लोकप्रिय होंगी।
साथ ही इस विधेयक को तैयार करने के लिए आईटी एक्ट 2000 में भी संशोधन करना होगा। इस एक्ट में कहा गया है कि किसी भी सरकारी विभाग को अपनी सेवाएं ऑनलाइन करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। हालांकि आईटी एक्ट आने के बाद से उसमें संशोधन हो चुके हैं और इसमें एक और संशोधन कर इसे नए बिल के अनुसार बhttp://www.blogger.com/img/blank.gifनाया जा सकता है। इसके लिए सरकार की इच्छाशक्ति की दरकार होगी। यदि बिल पास होता है तो यह पारदर्शिता लाने में सहायक होगा। साथ ही सरकारी विभागों को अधिक प्रभावी और जवाबदेह बनाएगा।
यह बिल इतना अहम् है तो इससे जुड़ी चिंताएं भी स्वाभाविक हैं। सबसे अहम् चिंता सेवाओं के मेंटनेंस, साइबर सुरक्षा और डाटा सुरक्षित रखने की होगी। और यह वह क्षेत्र है जो आईटी में बड़ी संख्या में रोजगार उपलब्ध कराएगा। मतलब साफ है इससे आईटी कंपनियों के लिए राजस्व का एक नया स्रोत बनेगा। अभी तक हमारी आईटी कंपनियां आउटसोर्सिंग पर निर्भर हैं। विधेयक आने के बाद आईटी कंपनियों की निर्भरता काफी हद तक विदेशों से घटेगी और उन्हें देश में ही बहुत सारे प्रोजेक्ट मिलेंगे। यह देश के आईटी कर्मियों के लिए रोजगार के नए अवसर पैदा करेगा।
दैनिक समाचार पत्र देशबंधु में छपे इस आलेख की लिंक :
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गांवों में डॉक्टरों का सपना
मिथिलेश कुमार
केंद्र सरकार ने एक ऐसे शॉर्ट टर्म कोर्स लाइसेंसिएट मेडिकल प्रैक्टिशनर (एलएमपी) की योजना का प्रस्ताव तैयार किया है जिससे ग्रामीण क्षेत्र में स्वास्थ्य सुविधाओं की व्याप्त समस्याओं का हल खोजा जा सके। सरकार ने शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में व्याप्त सुविधाओं की खाई को पाटने के लिए जिस गंभीरता का परिचय दिया है वह स्वागतयोग्य है, लेकिन यह प्रस्ताव सवालों के घेरे में है और इसके सभी पहलुओं पर चर्चा आवश्यक हो गई है।
भारत के गांवों में स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर सरकार को हमेशा आलोचनाओं का सामना करना पड़ता है क्योंकि देश के हर हिस्से में ग्रामीण स्वास्थ्य सुविधाओं की दशा चिंताजनक है। गांवों में उपलब्ध न्यूनतम सुविधाओं के बीच खस्ताहाल अस्पतालों से डॉक्टर्स अक्सर नदारद रहते हैं। बहुत से ऐसे अस्पताल हैं जो सिर्फ नर्स के सहारे चल रहे हैं। ऐसे अस्पतालों में डॉक्टर उपलब्ध कराने और स्वास्थ्य सुविधा मुहैया कराने के लिए केंद्र सरकार ने यह योजना बनाई है। क्या इससे ग्रामीण अस्पतालों में डॉक्टरों की कमी को दूर किया जा सकेगा या यह योजना शहरों और गांवों में स्वास्थ्य सुविधाओं के अंतर को पाटने की जगह और बढ़ाने का काम करेगी। सवाल ये भी है कि क्या यह योजना ग्रामीण क्षेत्रों में दोयम दर्जे की स्वास्थ्य सुविधा को औपचारिक नहीं बना देगी।
इस योजना के तहत साढ़े तीन साल के कोर्स का प्रस्ताव किया गया है। जिसके तहत डॉक्टरों को जिला अस्पतालों में प्रशिक्षित किया जाएगा। उसके बाद मेडिकल और सर्जरी में बैचलर डिग्री दी जाएगी। प्रशिक्षित डॉक्टर ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य करेंगे। इसका सिलेबस मेडिकल कोर्स के अनुसार ही रहेगा और इसमें से किडनी ट्रांसप्लांट, एंजियोग्राफी, एमआरआई और रेडियालॉजी जैसी चीजें हटाकर कोर्स अवधि को कम किया गया है। एलएमपी योजना के तहत ही तीन वर्षीय प्रशिक्षण का कार्यक्रम होगा जिसे पूरा करने के बाद डिप्लोमा प्रदान किया जाएगा और उन पर भी ग्रामीण स्वास्थ्य जरूरतों को पूरा करने का दारोमदार होगा। इस योजना की पृष्ठभूमि में सोच यही है कि इससे ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं के स्तर में मेट्रोपोलिटन इंडिया के बराबर ला दिया जाएगा। असल सवाल इस प्रस्ताव योजना से ग्रामीण भारत की स्थिति पर है और सरकार की मंशा पर है। क्या ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को शहरी क्षेत्रों की तरह स्वास्थ्य सुविधाएं प्राप्त करने का हक नहीं है? क्या यह सोच सरकार की दोहरे मानदंड को नहीं दर्शाती? क्या इससे यह नहीं कहा जा सकता कि यह योजना संविधान की मूल भावना समानता और मानवाधिकारों का उल्लंघन करती है।
सरकार एक बार फिर उसी पुरानी योजना को आजमाना चाहती है जबकि इस योजना की योजना की जगह ज्यादा अच्छा हल ये है कि हमें कुछ क्षेत्रों में और मेडिकल कॉलेज आरंभ करने की दरकार है। खासकर पूर्वोत्तर इलाकों में, बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, और झारखंड में जहां ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं में आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है। अभी भी देश में शिशु मृत्यु दर के मामले में मध्यप्रदेश पहले नंबर पर बना हुआ है जबकि मातृ मृत्यु दर में उत्तरप्रदेश शीर्ष स्थान पर है। देश में अभी लगभग 300 मेडिकल कॉलेज हैं जिनमें से 190 केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में हैं। उत्तरप्रदेश जिसकी आबादी 19 करोड़ है, वहां केवल 16 कॉलेज हैं। बिहार जिसकी जनसंख्या 9 करोड़ है वहां मात्र 8 कॉलेज हैं। राजस्थान में 8 करोड़ जनसंख्या और 8 कॉलेज हैं। मध्यप्रदेश में 8 करोड़ की जनसंख्या के बीच 12 कॉलेज हैं। यदि राज्य सरकारें सभी जिलों में मेडिकल कॉलेज खोलें तो देश में लगभग 600 कॉलेज होंगे फिर हर साल लगभग 75,000 एमबीबीएस ग्रेजुएट निकलेंगे।
योजना आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में डॉक्टरों की भारी कमी के बावजूद भारतीय डॉक्टर विदेशों में काम करने को तवाो देते हैं क्योंकि वहां वर्क लोड भी कम है। अमरीका, ब्रिटेन, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में लगभग 60,000 भारतीय फिजिशियन काम कर रहे हैं। ऑस्ट्रेलिया में 10,000 लोगों के बीच 249 डॉक्टर और कनाडा में 209 हैं। ब्रिटेन में यह आंकड़ा 166 हो जाता है और अमरीका में 548 है। ऐसे में भारत के मुकाबले महज 5 प्रतिशत वर्क लोड को डॉक्टर आसानी से प्राथमिकता देते हैं। भारत में फिलहाल 1700 लोगों के बीच एक डॉक्टर उपलब्ध है। यदि इनमें पारंपरिक चिकित्सा पध्दति से जुड़े डॉक्टरों को भी जोड़ दें तो यह अनुपात खिसककर 700 पर आ जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक 300 लोगों पर एक डॉक्टर होना चाहिए। इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए हमें किसी शॉर्ट कhttp://www.blogger.com/img/blank.gifट की बजाय स्थायी निदान ढूंढना होगा। भारत वैकल्पिक स्वास्थ्य व्यवस्थाओं के मामले में धनी देश है। यहां आयुर्वेद, सिध्द, यूनानी, होमियोपैथी जैसे कई चिकित्सा विकल्प उपलब्ध हैं। इस सभी क्षेत्रों में हजारों योग्य शिक्षित मेडिकल पेशेवर आसानी से मिल जाएंगे और ये सभी 4 साल से अधिक की ट्रेनिंग करके आए हैं। इस तरह से देखा जाए तो इन मेडिकल पेशेवरों की एक बड़ी कॉडर खड़ी की जा सकती है।
आज एक नर्स को भी अपने कोर्स के दौरान 4 साल की ट्रेनिंग से गुजरना पड़ता है जबकि प्रस्तावित बीआरएमएस कोर्स के लिए उससे भी कम से कम साढ़े तीन साल का समय रखा गया है। यानी एक नर्स बीआरएमएस कोर्स वालों से ज्यादा प्रशिक्षित होगी और यह स्थिति निश्चित ही अच्छी नहीं कही जा सकती।
दैनिक समाचार पत्र देशबंधु में छपा आलेख
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