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Thursday, July 21, 2011

छोटे शहरों में एफएम का तराना


मिथिलेश कुमार

केंद्र सरकार ने एफएम रेडियो को छोटे शहरों तक पहुंचाने के लिए लाइसेंस देने को हरी झंडी दे दी है। एफएम के विस्तार के तीसरे चरण में 227 शहरों में 839 नए एफएम स्टेशन खुलेंगे, जिसके लिए बोली लगाने का प्रस्ताव है। फिलहाल देश के 86 शहरों में 248 एफएम स्टेशन हैं। छोटे शहरों में एफएम का विस्तार क्या मायने रखता है? एफएम का दायरा बढ़ाने के क्या फायदे होंगे? और क्या छोटे शहरों में एफएम के लिए कुछ चुनौतियां भी होंगी?

हाल ही में कैबिनेट की बैठक में सूचना प्रसारण मंत्रालय के ‘निजी एजेंसियों के जरिए एफएम रेडियो प्रसारण सेवाओं के विस्तार संबंधी नीतिगत दिशा निर्देशों के तीसरे चरण के प्रस्ताव’ को मंजूरी दी गयी है, उसमें दो बातें प्रमुख है। पहली, एफएम को तीसरे चरण में एक लाख तक की आबादी वाले शहरों तक पहुंचाया जाएगा। दूसरी, एफएम रेडियो को आकाशवाणी के समाचार प्रसारण की अनुमति दे दी गयी है। इन निर्णयों का क्या असर होगा?

एफएम के तीसरे चरण के विस्तार में एक लाख की आबादी वाले वे शहर शामिल हैं, जो जिला या छोटे शहर होंगे। फिलहाल देश में 606 जिले और 5161 शहर हैं लेकिन इनमें से 514 जिलों में अभी एफएम नहीं है। क्या उन्हें मनोरंजन के साधन के रूप में एफएम की सुविधा का हक नहीं है? क्या सिर्फ बड़ी आबादी वाले शहरों के लोगों को ही एफएम की सुविधा मिलनी चाहिए? अब तक मेट्रो और बड़े शहरों में खुले एफएम के क्या मायने हैं? क्या इसका एक संदेश यह है कि यदि आपको एफएम सुनना है तो बड़े शहर में रहना होगा?

एमएफ के तीसरे चरण का विस्तार काफी हद तक इस भेदभाव को दूर करने में कामयाब होगा। तब एफएम के मनोरंजन की धुनें छोटे शहरों से होते हुए गांवों तक भी पहुंचेंगी और तब महानगरों के मेट्रो में, बस स्टॉप पर मोबाइल पर एफएम का मजा लेते लोगों या कार में बजते एफएम की तरह यह गांव की चौपाल तक दस्तक देगा। यह एफएम के लिए अगली क्रांति होगी। क्योंकि 10वीं पंचवर्षीय योजना (2002-07) के दौरान ही एफएम को देश की 60 प्रतिशत जनता तक पहुंचाने का लक्ष्य था लेकिन 11वीं योजना के दौरान भी यह महज 40 प्रतिशत लोगों तक ही पहुंच सका है। 294 शहरों में एफएम के विस्तार के साथ ही अनुमान है कि एफएम की पहुंच देश की 90 प्रतिशत आबादी तक हो जाएगी क्योंकि देश की 75 प्रतिशत जनसंख्या 33 फीसदी जिलों में रहती है। इसका मतलब है कि तीसरे चरण में एफएम बड़ी आबादी तक पहुंच बनाने में कामयाब होगा। एफएम में ऐसा क्या है जो अन्य माध्यमों से अलग बनाता है और गांवों तक इसकी पहुंच होनी जरूरी है?

संचार के माध्यमों में रेडियो एक ऐसा अनूठा माध्यम है, जिसकी अपनी विशेषताएं हैं और इस वजह से यह मनोरंजन, सूचना और शिक्षा का बेहतरीन माध्यम है। ऐसे में एफएम पर समाचारों के प्रसारण की अनुमति देना भी इसके दायरे को विस्तृत करेगा। एफएम रेडियो एक ऐसा माध्यम है, जिसमें ग्रासरूट लेवल तक पहुंच की क्षमता है। यह माध्यम अपनी विशेषताओं की वजह से वहां पहुंच सकता है, जहां अखबार और टीवी की पहुंच नहीं है क्योंकि इसके लिए आपको टीवी और अखबार की तरह अतिरिक्त खर्च नहीं करना पड़ता। तो उम्मीद करें कि तीसरे चरण का एफएम विस्तार जैसे ही पूरा होगा, छोटे शहरों यानी डी ग्रेड शहरों में एफएम की पहुंच होगी। यह एफएम रेडियो के लिए संजीवनी का काम करेगा, क्योंकि तब एफएम बिहार में पटना और मुजफ्फरपुर से निकलकर छपरा और सिवान में भी पहुंचेगा। छत्तीसगढ़ में यह रायपुर से बाहर निकलकर दुर्ग, भिलाई, कोरबा और राजगढ़ में भी पहुंचेगा और सब कुछ योजनानुसार हुआ, तो शहरों में भी तीन तीन नये एफएम स्टेशन खुलेंगे यानी सूचना और मनोरंजन के इस माध्यम के लोकतंत्रीकरण की यह अगली प्रक्रिया होगी। तो क्या एफएम का उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन होना चाहिए या इसके इतर भी इसकी भूमिकाएं हो सकती हैं?

एफएम अपनी साफ और स्पष्ट आवाज की वजह से शॉर्ट वेब और मीडियम वेब की तुलना में अनूठा है। सरकार ने एफएम पर समाचारों के प्रसारण की अनुमति दे दी है लेकिन उन्हें सिर्फ आकाशवाणी के समाचारों के ही प्रसारण की अनुमति है। इस सीमा को भी और विस्तार देने की जरूरत होगी क्योंकि आकाशवाणी भी अधिकांश खबरों के लिए पीटीआई और यूएनआई जैसी एजेंसियों पर निर्भर है तो एफएम के लिए सिर्फ आकाशवाणी का दायरा क्यों रखा गया है? पहले भी ट्रैफिक अपडेट, अंतरराष्ट्रीय खेलों के परिणाम जैसे क्रिकेट मैच के स्कोर आदि को सूचना प्रसारण मंत्रालय ने समाचार की श्रेणी से अलग रखा था और इनके प्रसारण पर प्रतिबंध नहीं था। अब एफएम पर कुछ जरूरी सूचनाओं को भी समाचार और करेंट अफेयर्स से अलग रखा गया है। खेल आयोजनों की कमेंट्री और इससे जुड़ी सूचना, यातायात तथा मौसम से संबंधित जानकारी, सांस्कृतिक कार्यक्रमों, उत्सवों, परीक्षाओं, परिणामों, पाठ्यक्रमों में प्रवेश, करियर मार्गदर्शन, रोजगार अवसरों की उपलब्धता और स्थानीय प्रशासन द्वारा मुहैया करायी जाने वाली बिजली-पानी की आपूर्ति, प्राकृतिक आपदाओं और स्वास्थ्य संदेश संबंधी जानकारियों को गैर-समाचार तथा सामयिक मामलों की प्रसारण श्रेणी में रखा गया है। यह एफएम के लिए स्थानीय स्तर पर बेहद जरूरी है। तो फिर एफएम संचालन में समस्या क्या होगी?

एफएम के तीसरे चरण के तहत लाइसेंसों की नीलामी के जरिये सरकार को 1,733 करोड़ रुपये का राजस्व मिलने की उम्मीद है और यह 1200 करोड़ की वर्तमान रेडियो इंडस्ट्री में महत्वपूर्ण विकास होगा। फिलहाल विज्ञापन बाजार में रेडियो की हिस्सेदारी महज 5 प्रतिशत है। तीसरे चरण के विस्तार के बाद इसमें 2 प्रतिशत बढ़ोत्तरी की संभावना है। छोटे शहरों में एमएम चलाने के लिए राजस्व जुटाना एक बड़ी चुनौती होगी लेकिन तीसरे चरण के तहत निजी एफएम चैनलों को उनके प्रसारण तंत्र के तहत नेटवर्किंग की अनुमति देकर लागत कम करने की कोशिश की गयी है। तब भी एफएम के तीसरे चरण का विस्तार रोजगार के कुछ अवसर उपलब्ध कराएगा।

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Friday, July 15, 2011

विरोध का अनूठा तरीका


यह तस्वीर है तमिलनाडु के शहर नागरकोईल की जहां यह व्यक्ति कलेक्ट्रेट परिसर में बैठा भीख मांग रहा है। इस सिविल इंजीनियर ठेकेदार ने अपने पास लगाई तख्ती पर लिखा है कि -पंचायत यूनियन असिस्टेंट एक्सीक्यूटिव इंजीनियर को घूस देने के लिए कृपया भीख दें।

बाद में इस ठेकेदार को पुलिस पकड़कर ले गई और उससे रिश्वत मांगने वाले अधिकारी के बारे में पूछताछ की गई। ठेकेदार ने पुलिस को बताया कि मालागुमदू गांव में 45000 रुपए का एक सड़क काम उन्होंने पूरा किया और उसका बिल प्रस्तुत किया, जो पिछले एक महीने से रिश्वत न देने की वजह से अटका हुआ है।

रिश्वत का विरोध के इस अनूठे तरीके पर ठेकेदार ने कहा उसके पास और कोई रास्ता नहीं था। उन्होंने कहा मैंने अपना काम पूरा किया है और सड़क की गुणवत्ता का ध्यान रखा है। इसमें मुझे मामूली राशि का मुनाफा होगा। उसमें से भी मैं इन अधिकारियों को क्यों दू? इस ठेकेदार ने हाल ही में कन्याकुमारी के जिला पुलिस अधीक्षक से भी पूछा था कि केरल की एक लड़की के यौन शोषण के आरोपी उस विशेष शाखा निरीक्षक का भी पता लगाया जाना चाहिए जो मीडिया में कथित रिपोर्ट आने के बाद फरार है।

Thursday, July 14, 2011

संकट में मर्डोक का साम्राज्य


यह बढ़ते चौतरफा दबावों का नतीजा है कि मीडिया मुगल रूपर्ट मर्डोक की कंपनी को बैकफुट पर आना पड़ा है। मर्डोक ने सेटेलाइट ब्रॉडकास्टिंग कंपनी ब्रिटिश स्काई ब्रॉडकास्टिंग (बीस्काईबी) के अधिग्रहण की दौड़ से अलग होने का फैसला किया है। उनकी कंपनी ने बीस्काईबी के अधिग्रहण के लिए 12 अरब डॉलर की बोली लगाई थी। उन्हें लगा था कि फोन टैपिंग के कारण विवाद में आए न्यूज ऑफ द वर्ल्ड को बंद करने से उनकी समस्याएं समाप्त हो जाएंगी लेकिन उनकी कंपनी न्यूज कॉरपोरेशन पर संकट के बाद अभी भी टले नहीं है। ब्रिटिश सरकार ने फोन टैपिंग सहित पूरे मामले की जांच के लिए जज ब्रायन लेवेजन के नेतृत्व में एक टीम बना दी है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने यह चेतावनी भी दी है कि मर्डोक की संस्था का कोई सदस्य गलती करने का दोषी पाया गया तो जीवन भर ब्रिटिश मीडिया से नहीं जुड़ पाएगा। ब्रिटेन के संसद के सत्ता पक्ष और विपक्ष ने एकजुट होकर इस मामले में मर्डोक, उनके बेटे जेम्स और न्यूज ऑफ द वर्ल्ड के पूर्व संपादक को समन भेजकर जिस प्रकार का रूख अख्तियार किया है उसके बारे में मर्डोक ने सपने में भी नहीं सोचा होगा। क्योंकि ये वही मर्डोक हैं जिनका समर्थन पाने के लिए पक्ष और विपक्ष सभी में होड़ लगी रहती थी। कटघरे में खड़े न्यूज कॉर्प के लिए इस झटके से उबर पाना आसान नहीं होगा और हो सकता है इस विवाद से पीछा छुड़ाने में ही मर्डोक का नाम और विवादों में भी सामने आए। अमेरिकी सांसदों ने इस बात के जांच की मांग की है कि कहीं अमेरिकी लोगों के भी तो फोन टेप या हैक तो नहीं किए गए। यही नहीं मर्डोक अपने बाकी के अखबारों को भी बेचने का भी मन बना रहे हैं। मीडिया के लिए स्तरहीन मानक स्थापित करना और निजता में दखल कहीं मर्डोक के मीडिया साम्राज्य के पतन की शुरुआत का कारण तो नहीं बन जाएगा।

Tuesday, July 12, 2011

न्यूज ऑफ द वर्ल्ड : बंद अध्याय से आरंभ सवाल


-मिथिलेश कुमार

ब्रिटेन में फोन हैकिंग को लेकर आरोपों में घिरे मीडिया मुगल रूपर्ट मर्डोक के अखबार ‘न्यूज ऑफ द वर्ल्ड’ को बंद कर दिया गया लेकिन इसे लेकर कुछ सवाल अभी भी लोगों के जहन में हैं जिनका जवाब ढूंढा जाना बाकी है। जिस अखबार का अंत किया गया, क्या इसे बंद करना सही उपाय था? इसके साथ ही बहस इस बात पर भी हो रही है कि मीडिया जब अपनी हद को पार कर जाए तो उसे कौन नियंत्रित करेगा?

एक झटके से बंद हुए अखबार में काम कर रहे लोगों के भविष्य के लिए क्या कोई आवाज उठाएगा? और सबसे बड़ी बहस ये भी है कि प्रेस के ऐसे कृत्य के बाद क्या उस पर अंकुश लगाने या नियामक के लिए कौन से उपाय होने चाहिए? सवाल प्रेस और पुलिस के व्यवहार और प्रेस के नियमन का भी है? सवाल ये भी है कि आखिर जो मुख्य आरोपी हैं वे अगर सत्ता प्रतिष्ठानों और अखबार मालिकों के करीबी हों तो उन पर कार्रवाई कौन करेगा? खबरें जुटाने के विवादास्पद तरीकों पर निगरानी कैसे होगी? लोगों की निजता में दखल देने वालों पर कौन नकेल कसेगा? नैतिकता और मर्यादा की तमाम सीमाओं को लांघकर पत्रकारिता के किन मूल्यों की स्थापना होगी? किसी चलते अखबार को बंद करने का फैसला आसान नहीं है? आखिर वे कौन सी परिस्थितियां थी जिसकी वजह से ब्रिटेन के इस सर्वाधिक प्रसारित अखबार को एकाएक बंद करना पड़ा और इसके क्या संदेश हैं?

1 अक्टूबर 1843 को इस अखबार का पहला संस्करण आया था और इन 168 वर्षों में यह अखबार ब्रिटेन के राजपरिवार की छह पीढियों का गवाह रहा है। जैसा कि इस अखबार के अंतिम संपादकीय में लिखा गया- इसने इतिहास जिया है, इतिहास देखा है और इतिहास बनाया है। इस अखबार ने महारानी विक्टोरिया के निधन, टाइटैनिक जहाज के डूबने, दो विश्व युद्ध, 1966 में फुटबॉल विश्व कप जीत, चंद्रमा पर पहला व्यक्ति, डायना की मौत सहित कई ऐतिहासिक मुद्दों को कवर किया। मर्डोक ने 1969 में इस अखबार को खरीदा था और इसे नई ऊंचाईयों तक ले गए।

ब्रिटेन में 27 लाख प्रतियों के साथ लगभग 75 लाख पाठकों तक पहुंचने वाला साप्ताहिक टैबलायड न्यूज ऑफ द वर्ल्ड बहुत घाटे में भी नहीं था और पिछले दो दशक से इसकी लोकप्रियता इसी दम पर पाठकों में बनी थी कि इस अखबार में सेलेब्रेटी की जिंदगी से जुड़ी गॉसिप, सेक्स और क्राइम का सनसनीखेज मसाला छपता था। अखबार ने इसी में दो कदम आगे बढ़ते हुए अपनी सीमाएं तोड़ते हुए वर्जित क्षेत्रों में प्रवेश किया और उसका नतीजा हुआ कि उस पर कई गंभीर आरोप लगे। इसमें सर्वाधिक विवादास्पद आरोप फोन टैंपिग का है।

जब एंडी कालसन संपादक थे तब अखबार ने पुलिस अधिकारियों को पैसे देकर जानकारी जुटाई। पुलिस अधिकारियों को अखबार द्वारा रिश्वत देकर जानकारी लेने का यह अनूठा उदाहरण दुनिया की पत्रकारिता जगत में दुर्लभ है। यही नहीं फोन हैकिंग के मामले तो और अद्वितीय है।

अटकलें हैं कि अखबार ने लगभग 7000 लोगों के फोन हैक कराए और खुफिया तरीके से जानकारी जुटाई। इस काम में जासूसों की भी मदद ली गई। इसी का नतीजा था कि अखबार ने 2005 में प्रिंस विलियम के घुटने की चोट की खबर छाप दी जिसके बाद महल के अधिकारियों ने कहा कि यह खबर वॉयस मेल को हैक किए बिना संभव नहीं थी और इसका परिणाम हुआ कि शाही मामलों के संपादक को चार महीने की जेल की सजा हुई। कालसन के संपादक रहते हुए कई सेलेब्रेटी और राजनीतिज्ञों के फोन हैक कराए गए। इन्हीं उदाहरणों में सबसे अमानवीय कृत्य भी सामने आया जब स्कूल की एक 13 वर्षीय लड़की मिली डाउलर की 2002 में हत्या हो गई थी और हत्या के बाद निजी जासूस की मदद से अखबार ने उसका फोन हैक कराया और कुछ वॉयस मेल हटा दिए गए। इससे उस परिवार को यह झूठी उम्मीद जगी कि शायद उनकी बेटी जिंदा है लेकिन ऐसा नहीं था। उसकी हत्या हो गई थी।

हैंकिंग के अमानवीय कृत्यों में उन परिजनों के फोन हैक किया जाना भी शामिल है जो 7 जुलाई 2005 के बम धमाकों में मारे गए और उन परिजनों के फोन भी जिनके परिवार के सदस्य इराक और अफगानिस्तान युद्ध में मारे गए। खबरें निकालने की जद्दोजहद में अखबार के रिपोर्टर और नीति निर्धारक अपनी सारी मर्यादाओं को भूल गए। आउट ऑफ कोर्ट सेटलमेंट किए। ब्रिटेन वह देश है जो दुनिया को सभ्यता का पाठ पढ़ाता है लेकिन मीडिया मुगल मर्डोक के इस साप्ताहिक की बात निराली थी और इससे भी अनूठा यह सवाल है कि मिली डाउलर की हत्या के समय इस टैबालायड की संपादक रही रिबेका ब्रूक्स पर कोई कार्रवाई क्यों नहीं हो रही है?

रिबेका ब्रूक्स मर्डोक की नजदीकी मानी जाती हैं और इसी वजह से वे अब मर्डोक के न्यूज इंटरनेशनल में मुख्य कार्यकारी हैं। 2003 में वे वर्ल्ड ऑफ द न्यूज की संपादक रहीं और उसके बाद द सन का संपादक बना दिया गया था। उन्होंने ब्रिटेन के हाउस ऑफ कामंस के पैनल के समक्ष कहा था कि हम पुलिस को पैसे देकर जानकारियां लेते हैं। आज वह मर्डोक की कंपनी की प्रमुख हस्तियों में शुमार हैं। यदि दोषी सत्ता प्रतिष्ठान के इर्द गिर्द का हो तो क्या वह निर्दोष हो जाता है? कहा जा रहा है कि सिर्फ इस एक महिला को बचाने के लिए पूरा अखबार बंद करना पड़ा और 200 लोगों के भविष्य पर अब भी प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है। क्या अखबार बंद करना इस सवाल का हल है? सवाल तो अवैधानिक तरीके अपनाने और उन पर फैसला लेने वाले लोगों का है? लोग सवाल पूछ रहे हैं कि आज जबकि उस अखबार में ज्यादातर लोग नए हैं। संपादक बदल गए हैं तब भी गाज उन पर क्यों गिराई गई जो गलती इन लोगों ने की ही नहीं और जिन लोगों ने गलती की, वे अब भी मजे में हैं?
पुलिस अधिकारियों को रिश्वत दिए जाने के समय एंडी कालसन अखबार के संपादक थे लेकिन उन पर कोई कार्रवाई नहीं हुई? उसके बाद एंडी कंजरवेटिव पार्टी के संचार निदेशक बन गए थे और बाद में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन के मीडिया सलाहकार के पद से नवाजे गए। मतलब साफ है जो इस कृत्य के लिए दोषी है, वे अब महत्वपूर्ण पदों पर काबिज हैं और इनके गिरेबां पर हाथ डालने से आसान काम अखबार को बंद करना ही था। क्योंकि अब जब अखबार के इन कृत्यों की हर तरफ निंदा हो रही है, वे किसी तरह अपनी साख बचाना चाहते हैं। आखिर वे अपनी साख क्यों बचाना चाहते हैं? इसके पीछे वजह है कि वे ब्रिटिश स्काई ब्रॉडकास्टिंग (बीस्काईबी) की शेष 61 प्रतिशत हिस्सेदारी पर भी कब्जा चाहते हैं और इसमें उन्हें ब्रिटेन की संसद का समर्थन चाहिए। वे नहीं चाहते कि न्यूज ऑफ द वर्ल्ड का विवाद इस सौदे के आड़े आए।

मीडिया खबर में छपे इस विश्लेषण की लिंक

Sunday, July 10, 2011

आइसक्रीम और फ्रूटी


-मिथिलेश कुमार

वह स्वतंत्रता सेनानी एक्सप्रेस का रिजर्वेशन डिब्बा था और साइड की बर्थ पर एक दंपति के साथ उसके दो बच्चे भी थे। उनमें बिटिया की उम्र लगभग 6 वर्ष और बच्चे की 4 वर्ष थी। दोनों में एक क्षण के लिए भी ऐसा न था कि उनमें झगड़ा न हो रहा हो। बच्चों से परेशान मां ऊपर की बर्थ पर जाकर सो गई। अब बच्चों को संभालने की जिम्मेदारी पिता पर थी। दोनों खिड़की से बाहर झांक रहे थे। ट्रेन आगे जा रही थी। शहर, गांव, मुहल्ले, खेत, पेड़ पौधे, मवेशी सब पीछे छूट रहे थे। तभी आइसक्रीम वाला आया। बच्चे ने आइसक्रीम खाने जिद की। उसके साथ उसकी बहन ने भी मिन्नत की। उसे भी आइसक्रीम चाहिए। पिता ने बच्चे को आइसक्रीम दे दी और बच्ची की बात अनसुनी कर दी। बच्ची कातर आंखों से आइसक्रीम वाले को देख रही थी। शायद उस पर वह रहम करे और कह दे कि एक आइसक्रीम तुम भी ले लो। मेरी तरफ से, पर यह सिर्फ उसकी सोच हो सकती थी। हकीकत में ऐसा न हुआ। आइसक्रीम वाला पैसे लेकर आगे निकल गया।

बच्चा आइसक्रीम में सराबोर होने लगा। कुछ उसकी सीट पर गिरती, कुछ उसकी किसी रेहड़ी से खरीद कर पहनाई गई शर्ट पर। पर उससे कोई अंतर न था। वह आइसक्रीम खाने के साथ इस बात में मगन था कि आइसक्रीम सिर्फ उसे मिली है। उसकी बहन को नहीं। वह बच्ची अब भी एक उम्मीद के साथ अपने भाई को देखती कि शायद उसे दया आ जाए और एक बार उसे भी वह ठंडी बरफ चाटने को मिल जाए। बच्चा शरारती था। बहन जैसे ही पास आने की कोशिश करती वह उल्टी तरफ मुड़ जाता। बहन फिर नाउम्मीद। और इतनी हिम्मत तो थी नहीं वह उससे जबरदस्ती ले ले।

बच्चा आइसक्रीम खाता कम था, दिखाता ज्यादा था और उससे भी ज्यादा सीट और अपने कपड़ों पर गिरा रहा था। पिता की आंखों में शायद एक विजयी भाव थाबच्चा मजे से खा रहा है और खुश हो रहा है। बच्ची मिन्नत भरी आंखों से पिता पर भी गुस्सा कर रही थी। उसे क्यों नहीं दी गई। बाप क्या कहता, क्योंकि उसे कोई अफसोस नहीं था। फिर भी उसने बच्ची को दिलासा दिया, जब थोड़ी सी बचेगी तब खा लेना। लड़की ने कहा नहीं, अब तो उसे पूरी ही चाहिए। नई चाहिए। पिता का बच्ची के प्रति दायित्व बोध जगा, कहा आने दो आइसक्रीम वाले को फिर तुम्हें अलग से एक पूरी आइसक्रीम दिला दूंगा।

बच्ची को कुछ उम्मीद जगी। वह उम्मीद उसकी जीत की थी लेकिन उस जीत को आना अभी बाकी था। आइसक्रीम खत्म होने की कगार पर आ गई और बच्ची ने भी अब उस आइसक्रीम को न छूने का प्रण किया। आइसक्रीम खत्म होते ज्यादा वक्त नहीं लगा और लेकिन आइसक्रीम वाला नहीं आया। हां, तभी एक फ्रूटी वाला जरूर आ गया।

अब बच्ची की बारी थी। उसकी आंखों में चमक थी और विश्वास भी। उसने अपनी फ्राक के नीचे पैंट में छुपाकर कुछ सिक्के रखे थे। उसने सारे सिक्के उस फ्रूटी वाले के हाथ में रख दिए। फ्रूटी वाले ने सिक्कों को देखा। तब तक बाप ने भी एक दस का नोट उसके हाथ में पकड़ा दिया था। उसने बच्ची को पहले फ्रूटी दी और फिर सिक्के में से सिर्फ दो रखकर बाकी उसने बच्ची को वापस कर दिए। बच्ची खुश थी उसने पैसे को जल्दी-जल्दी रखाफ्रूटी में झट से सुड़कने के लिए पाइप लगाई। बच्चे की तरफ देखे बिना उसे खींचना शुरू कर दिया। उसे जल्दी थी कि शायद उसे भी बच्चे को न दे दिया जाए, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बच्चा मुंह ताकता रह गया। बच्ची विजयी मुस्कान के साथ फ्रूटी के डिब्बे की अंतिम बूंद गटक रही थी।