नीट में सीट महज एक लाख से अधिक तो 13 लाख बच्चे क्वालिफाई क्यों?
नीट 2024 का रिजल्ट व कटऑफ देखने के बाद मेरे मन में एक सहज जिज्ञासा उठी। वह कुछ आंकड़ों को लेकर थी…
उन आंकड़ों पर आप भी गौर करिए
नीट 2024 के लिए कितने स्टूडेंट्स ने रजिस्ट्रेशन किया 24,06,079
नीट 2024 की परीक्षा में कितने स्टूडेंट शामिल हुए 23,33,297
नीट 2024 में कितने उम्मीदवार अबसेंट रहे 72,782
कितने विद्यार्थियों ने नीट एग्जाम क्वालिफाई किया 13,16,268
लगभग 23 लाख बच्चों ने मेडिकल में एडमिशन के लिए नीट परीक्षा दी। नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (एनटीए) ने इनमें लगभग 13 लाख बच्चों को उत्तीर्ण घोषित किया।
भारत में वर्तमान में कुल 704 मेडिकल कॉलेज हैं। इन सभी कॉलेजों में कुल लगभग एक लाख नौ हजार एक सौ सत्तर मेडिकल सीटें हैं।अब सवाल है कि जब एक लाख से कुछ अधिक सीटें हैं तो 13 लाख से अधिक बच्चे क्यों क्वालिफाई हो रहे हैं? और जब 13 लाख क्वालिफाई हो रहे हैं और इनमें से एक लाख कुछ अधिक का ही एडमिशन होना है तो बाकी के 12 लाख पास होकर भी क्या करते हैं? इतना बड़ा गैप क्यों है?
नीट में स्टूडेंट्स 17, 19 और 23 प्रतिशत अंक लाकर भी कैसे क्वालिफाई हो जाते हैं?
मन में इस जिज्ञासा से पहले मैंने एक खबर पड़ी थी जिसका सारांश यह है कि नीट परीक्षा 720 नंबर की होती है और इस परीक्षा में 120 नंबर लाने वाला भी क्वलिफाई हो जाएगा यानी मात्र लगभग 16.67 प्रतिशत।
खैर जब रिजल्ट आया तो 120 तो नहीं लेकिन 2024 में कटऑफ रहा 164 यानी 22.78 प्रतिशत।
हालांकि एक आंकड़ा यह भी है कि 2023 में यह कटऑफ 137 अंक यानी 19.03 प्रतिशत रहा। क्वालिफाई हुए 11 लाख 45 हजार से अधिक और सीटें थीं एक लाख 6 हजार 333…
और 2022 में 117 अंक कटऑफ रहा यानी 16.36 प्रतिशत अंक आ गए तो आप इस परीक्षा में पास हैं।
आप मैट्रिक, इंटर, बीए, एमए, किसी प्रोफेशनल कोर्स की परीक्षा देते हैं। उसमें यह तय होता है कि आपको कम से कम 30 प्रतिशत या 33 प्रतिशत या 45 प्रतिशत अंक आएंगें तो ही पास माने जाएंगे। नीट की परीक्षा में ऐसा क्यों नहीं है? ऐसा क्यों है कि यहां 17 प्रतिशत, 19 प्रतिशत और 22 प्रतिशत वाला भी पास हो जाता है?
उपलब्ध सीटों के 11 गुना या 13 गुना विद्यार्थियों को क्यों पास किया जाता है? और जब महज लगभग 1 लाख बच्चों को ही एडमिशन मिलना है तो बाकि 10 लाख जो क्वालिफाई हुए हैं, उन बच्चों का कौन मालिक है?
इसका जवाब में अमीर बनाम गरीब की लड़ाई है। पूरा सिस्टम ऐसा बनाया गया है कि जिनके पास खूब पैसा है, उनके लिए मेडिकल की पढ़ाई सीट खरीदकर पढ़ने जैसा मामला है। और जो गरीब हैं, उनके लिए कड़ी प्रतिस्पर्धा है और उसके बाद भी वे डॉक्टरी के पेशे में नहीं आ सकते?
तो क्या सरकार ने यह सिस्टम अमीरों के समर्थन में बनाया है? गरीबों के लिए क्या है?
क्योंकि 2012 तक ऑल इंडिया प्री मेडिकल टेस्ट यानी एआईपीएमटी के जरिये मेडिकल में एडमिशन होता था। 2013 में नीट यूजी की शुरुआत हुई और पहले इसका आयोजन सीबीएसई करता था। 2019 में नीट संचालन की जिम्मेदारी एनटीए को दी गई।
सरकारी मेडिकल कॉलेज में कम फीस
हम सभी जानते हैं सरकारी मेडिकल कॉलेजों में फीस कम लगती है। बहुत कम।
देश में मेडिकल की पढ़ाई 7 सेंट्रल यूनिवर्सिटी में होती है। इनमें 1180 सीटें हैं। और फीस पूरी पढ़ाई के दौरान औसतन 4 लाख रुपए से कम ही है।
देशभर में 382 सरकारी कॉलेज हैं और इनमें कुल 55225 सीटें हैं। और इसमें फीस सहित पढ़ाई का अन्य खर्च औसतन 6.20 लाख रुपए है।
जिनके पास करोड़ों रुपए नहीं हैं और प्रतिभा संपन्न हैं, वे इसी 56405 सीटों के लिए फाइट करते हैं कि किसी तरह रैंक और नंबर अच्छे आ जाएं जिससे इन सीटों पर एडमिशन मिल जाए तो कम खर्च में पढ़ाई पूरी हो जाए।
तो इसका असल क्लाइमेक्स अब शुरू होता है-भारत में प्राइवेट कॉलेज से मेडिकल की पढ़ाई बहुत महंगी है। इसकी फीस और खर्च मिलाकर करोड़ों में है।
प्राइवेट मेडिकल कॉलेज में करोड़ रुपए फीस
देश में 264 प्राइवेट मेडिकल कॉलेज हैं। इन कॉलेजों में 42,515 सीटें हैं और फीस व अन्य खर्च लगभग 78.82 लाख रुपए है।
इसी तरह देश में 51 डीम्ड यूनिवर्सिटी हैं जिनमें मेडिकल के लिए 10,250 सीटें हैं और इन सीटों पर एक विद्यार्थी की फीस लगभग 1 करोड़ 22 लाख है। प्राइवेट मेडिकल कॉलेज और डीम्ड यूनिवर्सिटी में कुल 52,765 मेडिकल सीटें हैं और इनमें पढ़ाई का औसतन खर्च 78 लाख से सवा करोड़ के बीच है। इन सीटों पर एडमिशन लेकर पढ़ाई का खर्च क्या कोई सामान्य परिवार का विद्यार्थी उठा सकता है? जवाब है नहीं।
इन सीटों पर देश की सिर्फ 2 प्रतिशत आबादी के अमीर लोग ही खर्च उठाने में सक्षम हैं और यही वजह है कि एनटीए 11 या 13 गुना अधिक रिजल्ट जारी करता है ताकि प्राइवेट मेडिकल कॉलेज की ये सीटें खाली न रह जाए। और 19 या 22 प्रतिशत अंक पाकर भी बच्चे का एडमिशन हो जाए। तो बाकि बच्चों के लिए क्या विकल्प बचता है?
मजबूरी में कुछ विदेश से पढ़ाई
तो जिनके पास बहुत अधिक पैसा नहीं है वे मेडिकल की पढ़ाई के लिए उन देशों का रुख करते हैं जहां यह कम पैसे में हो सके। भारतीय छात्रों के लिए एमबीबीएस की पढ़ाई करने के लिए कुछ लोकप्रिय और सबसे सस्ते देश जैसे चीन, जर्मनी, किर्गिस्तान, कजाकिस्तान और बांग्लादेश आदि हैं। इन देशों में पढ़ाई और रहने का खर्च अपेक्षाकृत कम है और अधिकांश भारतीय विश्वविद्यालयों की तुलना में सस्ता है।
विदेश में एमबीबीएस की पढ़ाई करने करने के लिए भारत से बड़ी संख्या में स्टूडेंट यूएसए, यूके, जर्मनी, रूस और यूक्रेन जाते हैं। पिछले दिनों जब रूस-यूक्रेन के बीच युद्ध शुरू हुआ तो बड़ी संख्या में भारतीय छात्र यूक्रेन में फंस गए थे। रूस-यूक्रेन युद्ध के बीच ऑपरेशन गंगा के तहत भारत लाए गए 18282 भारतीय छात्रों में ज़्यादातर मेडिकल छात्र थे।
अब सवाल है कि मेडिकल शिक्षा में कौन से कदम उठाएं जाएं जिससे यह स्थिति सुधरे।
तो इसका सरल जवाब है कॉलेजों की संख्या बढ़ाई जाए, सीटें बढ़ाईं जाएं। सस्ती पढ़ाई की व्यवस्था की जाए तो संभव है।
अब यह पूछा जा सकता है कि इस दिशा में हो क्या रहा है?
सरकार की ओर से जारी 12 दिसंबर 2023 के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार मेडिकल कॉलेजों में 82% की बढ़ोतरी हुई है। 2014 से पहले ये 387 थीं जो बढ़कर अब 706 हो गई हैं। इसके अलावा, 112% की बढ़ोतरी के साथ एमबीबीएस सीटें 51,348 (2014) से 1,08,940 (2023) हो गईं और 127% की बढ़ोतरी के साथ पीजी सीटें 31,185 (2014) से 70,674 (2023) हो गई हैं। तो क्या ये सीटें पर्याप्त है? जवाब है नहीं।
अभी इस दिशा में बहुत काम किए जाने की जरूरत है और केंद्र को सस्ती शिक्षा और सस्ती चिकित्सा लोगों को उपलब्ध कराने के लिए एम्स जैसे विश्वसनीय संस्थान, मेडिकल कॉलेज बनाने की जरूरत है, जिससे बड़ी संख्या में युवाओं की कड़ी मेहनत सार्थक हो सके और नीट में सीटों के लिए जिस तरह से पेपर लीक की घटना सामने आई है, उस पर रोक लगाई जा सके।
यही नहीं राज्यों में जो सीटों की असमानता है और 85 प्रतिशत स्टेट कोटा है, उस असमानता को भी दूर करने की जरूरत है। जैसे बिहार में 12 करोड़ से अधिक आबादी के लिए 13 सरकारी कॉलेजों में 1550 सीटें हैं वहीं तमिलनाडु के 38 सरकारी कॉलेजों में 5250 और महाराष्ट्र के 32 कॉलेजों में 5125 सीटें हैं। तमिलनाडु की आबादी लगभग 10 करोड़ और महाराष्ट्र की आबादी साढ़े तेरह करोड़ है।
ये खाई राज्य सरकारों की कमी से बनी है। जिन सरकारों ने बेहतर काम किया उन्होंने सीटें बढ़ाई, लेकिन जिन्होंने इस ओर ध्यान नहीं दिया तो आज फिसड़्डी दिख रहे हैं।
मैं सिर्फ एक उदाहरण बताता हूं, किसी रूट पर यदि एक ही ट्रेन चलती हो तो जाहिर है, उसमें अधिक भीड़ होगी, क्षमता से पांच गुना अधिक यात्री सवार होंगे। टिकटों की कालाबाजारी होगी। लेकिन यदि इंफ्रास्ट्रक्चर ऐसा हो कि वहां उसकी जगह 5 ट्रेनें चलाई जा सकें तो टिकटों की कालाबाजारी रूक जाएगी। टिकट आसानी से मिलेगा। लोगों के लिए यात्रा सुगम हो जाएगी।
मेडिकल विद्यार्थियों की यह यात्रा कब सुगम बनेगी? पढ़ाई की यह यात्रा सुगम बननी चाहिए कि नहीं?
देश को सरकारों से इस जवाब का इंतजार है!
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Tuesday, July 14, 2015
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Wednesday, August 3, 2011
प्रेरक कलाम- “आई एम कलाम”
पिछले दिनों बच्चों पर केंद्रीत फिल्म चिल्लर पार्टी और उसके पहले स्टेनली का डिब्बा चर्चा में रही। इस सूची में एक और नाम है- ‘आई एम कलाम’। नील माधव पंडा द्वारा निर्देशित इस फिल्म को पहले ही कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं।
फिल्म की कहानी राजस्थान के एक गरीब परिवार के बच्चे छोटू (हर्ष मायर) के इर्द-गिर्द घूमती है। गरीबी की वजह से बच्चे की मां (मीना मीर) उसके लिए काम की तलाश करती है और छोटू को भाटी मामा (गुलशन ग्रोवर) के ढाबे पर काम करने के लिए छोड़ जाती है। बच्चा आते ही ढाबे के मालिक के ऊंटनी के पैर का जख्म जड़ी-बूटियों की मदद से ठीक कर देता है। भाटी बच्चे के काबिलियत से खुश होता है लेकिन छोटू को लैप्टन (पितोबास) के अधीन काम करना होता है और वह उस पर हुकुम चलाना चाहता है। लैप्टन अमिताभ का फैन है लेकिन जब रात को सोने की बारी आती है तो वह छोटू को बाहर सोने को कहता है। छोटी अपनी समझदारी से उसकी खाट पर सो रहा होता है और लैप्टन खाट के नीचे। क्योंकि छोटू की मां भी कहती है “उसका दिमाग रेल भी तेज चलता है।”
भाटी के ढाबे के पास एक महल है जिसके आधे हिस्से में एक राजपरिवार रहता है और आधा हिस्सा हैरिटेज होटल के रूप में है। होटल में रहने वाले लोगों के लिए खाना-नाश्ता भाटी के ढाबे से जाता है। छोटू को होटल में खाना पहुंचाने का जिम्मा मिलता है। इसी दौरान छोटू राजपरिवार के इकलौते प्रिंस रणविजय (हुसैन साद) से दोस्ती करता है।
एक दिन छोटू टेलीविजन पर गणतंत्र दिवस की परेड देख रहा होता है और वह अब्दुल कलाम को देखता है। वह उनसे प्रभावित होता है और अपना नाम कलाम रख लेता है। वह राष्ट्रपति से मिलना चाहता है। ढाबे पर आने वाली एक फ्रांसिसी महिला लूसी (बिट्राइस ऑरडिक्स) से भी छोटू दोस्ती करता है और उससे फ्रेंच सीखता है। वह प्रिंस से पढ़ना सीखता है और बाद में प्रिंस के लिए एक भाषण लिखता है। उस भाषण पर प्रिंस को पुरस्कार मिलता है लेकिन पैलेस के कारिंदे कलाम के कमरे की तलाशी लेकर प्रिंस के कपड़े-किताबें पाकर उसकी पिटाई करते हैं, उसे चोर घोषित करते हैं और उसे यहां से दूर चले जाने का फरमान सुनाया जाता है।
छोटू एक ट्रक पर सवार होकर दिल्ली पहुंचता है और राष्ट्रपति से मिलना चाहता है। उसे गार्ड इंट्री नहीं देते हैं। उधर जैसे ही प्रिंस को छोटू के चले जाने की बात पता चलती है, वह अपने पिता को बताता है कि छोटू चोर नहीं है, और सारी चीजें उसने खुद दी थी। प्रिंस के पिता को गलती का एहसास होता है और लूसी मैडम के साथ प्रिंस छोटू को खोजने दिल्ली पहुंचता है। छोटू इंडिया गेट के पास मिल जाता है। उसे वापस लाया जाता है और छोटू भी प्रिंस के स्कूल में पढ़ने लगता है।
हर्ष मायर ने फिल्म में छोटू की भूमिका में जान डाल दी है। संजय चौहान के डॉयलाग्स राजस्थानी बोली में खासे प्रभावी हैं। सत्तासी मिनट की फिल्म में संदेश है- कर्म और किस्मत के द्वंद्व के बीच कर्म बड़ा होता है। हर बच्चा बड़े सपने देख सकता है। यह फिल्म ढाबे में काम करने वाले उन हजारों बच्चों का प्रतिनिधित्व करती है जो गरीबी की वजह से पढ़ाई नहीं कर पाते और उनके लिए प्रेरणास्रोत कलाम जैसा व्यक्तित्व होता है। स्माइल फाउंडेशन की इस शानदार प्रस्तुति में एक-एक पात्र अपने चरित्र के साथ न्याय करते दिखते हैं।
Thursday, July 21, 2011
छोटे शहरों में एफएम का तराना
मिथिलेश कुमार
केंद्र सरकार ने एफएम रेडियो को छोटे शहरों तक पहुंचाने के लिए लाइसेंस देने को हरी झंडी दे दी है। एफएम के विस्तार के तीसरे चरण में 227 शहरों में 839 नए एफएम स्टेशन खुलेंगे, जिसके लिए बोली लगाने का प्रस्ताव है। फिलहाल देश के 86 शहरों में 248 एफएम स्टेशन हैं। छोटे शहरों में एफएम का विस्तार क्या मायने रखता है? एफएम का दायरा बढ़ाने के क्या फायदे होंगे? और क्या छोटे शहरों में एफएम के लिए कुछ चुनौतियां भी होंगी?
हाल ही में कैबिनेट की बैठक में सूचना प्रसारण मंत्रालय के ‘निजी एजेंसियों के जरिए एफएम रेडियो प्रसारण सेवाओं के विस्तार संबंधी नीतिगत दिशा निर्देशों के तीसरे चरण के प्रस्ताव’ को मंजूरी दी गयी है, उसमें दो बातें प्रमुख है। पहली, एफएम को तीसरे चरण में एक लाख तक की आबादी वाले शहरों तक पहुंचाया जाएगा। दूसरी, एफएम रेडियो को आकाशवाणी के समाचार प्रसारण की अनुमति दे दी गयी है। इन निर्णयों का क्या असर होगा?
एफएम के तीसरे चरण के विस्तार में एक लाख की आबादी वाले वे शहर शामिल हैं, जो जिला या छोटे शहर होंगे। फिलहाल देश में 606 जिले और 5161 शहर हैं लेकिन इनमें से 514 जिलों में अभी एफएम नहीं है। क्या उन्हें मनोरंजन के साधन के रूप में एफएम की सुविधा का हक नहीं है? क्या सिर्फ बड़ी आबादी वाले शहरों के लोगों को ही एफएम की सुविधा मिलनी चाहिए? अब तक मेट्रो और बड़े शहरों में खुले एफएम के क्या मायने हैं? क्या इसका एक संदेश यह है कि यदि आपको एफएम सुनना है तो बड़े शहर में रहना होगा?
एमएफ के तीसरे चरण का विस्तार काफी हद तक इस भेदभाव को दूर करने में कामयाब होगा। तब एफएम के मनोरंजन की धुनें छोटे शहरों से होते हुए गांवों तक भी पहुंचेंगी और तब महानगरों के मेट्रो में, बस स्टॉप पर मोबाइल पर एफएम का मजा लेते लोगों या कार में बजते एफएम की तरह यह गांव की चौपाल तक दस्तक देगा। यह एफएम के लिए अगली क्रांति होगी। क्योंकि 10वीं पंचवर्षीय योजना (2002-07) के दौरान ही एफएम को देश की 60 प्रतिशत जनता तक पहुंचाने का लक्ष्य था लेकिन 11वीं योजना के दौरान भी यह महज 40 प्रतिशत लोगों तक ही पहुंच सका है। 294 शहरों में एफएम के विस्तार के साथ ही अनुमान है कि एफएम की पहुंच देश की 90 प्रतिशत आबादी तक हो जाएगी क्योंकि देश की 75 प्रतिशत जनसंख्या 33 फीसदी जिलों में रहती है। इसका मतलब है कि तीसरे चरण में एफएम बड़ी आबादी तक पहुंच बनाने में कामयाब होगा। एफएम में ऐसा क्या है जो अन्य माध्यमों से अलग बनाता है और गांवों तक इसकी पहुंच होनी जरूरी है?
संचार के माध्यमों में रेडियो एक ऐसा अनूठा माध्यम है, जिसकी अपनी विशेषताएं हैं और इस वजह से यह मनोरंजन, सूचना और शिक्षा का बेहतरीन माध्यम है। ऐसे में एफएम पर समाचारों के प्रसारण की अनुमति देना भी इसके दायरे को विस्तृत करेगा। एफएम रेडियो एक ऐसा माध्यम है, जिसमें ग्रासरूट लेवल तक पहुंच की क्षमता है। यह माध्यम अपनी विशेषताओं की वजह से वहां पहुंच सकता है, जहां अखबार और टीवी की पहुंच नहीं है क्योंकि इसके लिए आपको टीवी और अखबार की तरह अतिरिक्त खर्च नहीं करना पड़ता। तो उम्मीद करें कि तीसरे चरण का एफएम विस्तार जैसे ही पूरा होगा, छोटे शहरों यानी डी ग्रेड शहरों में एफएम की पहुंच होगी। यह एफएम रेडियो के लिए संजीवनी का काम करेगा, क्योंकि तब एफएम बिहार में पटना और मुजफ्फरपुर से निकलकर छपरा और सिवान में भी पहुंचेगा। छत्तीसगढ़ में यह रायपुर से बाहर निकलकर दुर्ग, भिलाई, कोरबा और राजगढ़ में भी पहुंचेगा और सब कुछ योजनानुसार हुआ, तो शहरों में भी तीन तीन नये एफएम स्टेशन खुलेंगे यानी सूचना और मनोरंजन के इस माध्यम के लोकतंत्रीकरण की यह अगली प्रक्रिया होगी। तो क्या एफएम का उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन होना चाहिए या इसके इतर भी इसकी भूमिकाएं हो सकती हैं?
एफएम अपनी साफ और स्पष्ट आवाज की वजह से शॉर्ट वेब और मीडियम वेब की तुलना में अनूठा है। सरकार ने एफएम पर समाचारों के प्रसारण की अनुमति दे दी है लेकिन उन्हें सिर्फ आकाशवाणी के समाचारों के ही प्रसारण की अनुमति है। इस सीमा को भी और विस्तार देने की जरूरत होगी क्योंकि आकाशवाणी भी अधिकांश खबरों के लिए पीटीआई और यूएनआई जैसी एजेंसियों पर निर्भर है तो एफएम के लिए सिर्फ आकाशवाणी का दायरा क्यों रखा गया है? पहले भी ट्रैफिक अपडेट, अंतरराष्ट्रीय खेलों के परिणाम जैसे क्रिकेट मैच के स्कोर आदि को सूचना प्रसारण मंत्रालय ने समाचार की श्रेणी से अलग रखा था और इनके प्रसारण पर प्रतिबंध नहीं था। अब एफएम पर कुछ जरूरी सूचनाओं को भी समाचार और करेंट अफेयर्स से अलग रखा गया है। खेल आयोजनों की कमेंट्री और इससे जुड़ी सूचना, यातायात तथा मौसम से संबंधित जानकारी, सांस्कृतिक कार्यक्रमों, उत्सवों, परीक्षाओं, परिणामों, पाठ्यक्रमों में प्रवेश, करियर मार्गदर्शन, रोजगार अवसरों की उपलब्धता और स्थानीय प्रशासन द्वारा मुहैया करायी जाने वाली बिजली-पानी की आपूर्ति, प्राकृतिक आपदाओं और स्वास्थ्य संदेश संबंधी जानकारियों को गैर-समाचार तथा सामयिक मामलों की प्रसारण श्रेणी में रखा गया है। यह एफएम के लिए स्थानीय स्तर पर बेहद जरूरी है। तो फिर एफएम संचालन में समस्या क्या होगी?
एफएम के तीसरे चरण के तहत लाइसेंसों की नीलामी के जरिये सरकार को 1,733 करोड़ रुपये का राजस्व मिलने की उम्मीद है और यह 1200 करोड़ की वर्तमान रेडियो इंडस्ट्री में महत्वपूर्ण विकास होगा। फिलहाल विज्ञापन बाजार में रेडियो की हिस्सेदारी महज 5 प्रतिशत है। तीसरे चरण के विस्तार के बाद इसमें 2 प्रतिशत बढ़ोत्तरी की संभावना है। छोटे शहरों में एमएम चलाने के लिए राजस्व जुटाना एक बड़ी चुनौती होगी लेकिन तीसरे चरण के तहत निजी एफएम चैनलों को उनके प्रसारण तंत्र के तहत नेटवर्किंग की अनुमति देकर लागत कम करने की कोशिश की गयी है। तब भी एफएम के तीसरे चरण का विस्तार रोजगार के कुछ अवसर उपलब्ध कराएगा।
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एफएम रेडियो,
एमएम विस्तार फेज 3,
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Friday, July 15, 2011
विरोध का अनूठा तरीका
यह तस्वीर है तमिलनाडु के शहर नागरकोईल की जहां यह व्यक्ति कलेक्ट्रेट परिसर में बैठा भीख मांग रहा है। इस सिविल इंजीनियर ठेकेदार ने अपने पास लगाई तख्ती पर लिखा है कि -पंचायत यूनियन असिस्टेंट एक्सीक्यूटिव इंजीनियर को घूस देने के लिए कृपया भीख दें।
बाद में इस ठेकेदार को पुलिस पकड़कर ले गई और उससे रिश्वत मांगने वाले अधिकारी के बारे में पूछताछ की गई। ठेकेदार ने पुलिस को बताया कि मालागुमदू गांव में 45000 रुपए का एक सड़क काम उन्होंने पूरा किया और उसका बिल प्रस्तुत किया, जो पिछले एक महीने से रिश्वत न देने की वजह से अटका हुआ है।
रिश्वत का विरोध के इस अनूठे तरीके पर ठेकेदार ने कहा उसके पास और कोई रास्ता नहीं था। उन्होंने कहा मैंने अपना काम पूरा किया है और सड़क की गुणवत्ता का ध्यान रखा है। इसमें मुझे मामूली राशि का मुनाफा होगा। उसमें से भी मैं इन अधिकारियों को क्यों दू? इस ठेकेदार ने हाल ही में कन्याकुमारी के जिला पुलिस अधीक्षक से भी पूछा था कि केरल की एक लड़की के यौन शोषण के आरोपी उस विशेष शाखा निरीक्षक का भी पता लगाया जाना चाहिए जो मीडिया में कथित रिपोर्ट आने के बाद फरार है।
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