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Tuesday, July 9, 2024

नीट में सीट महज एक लाख से अधिक तो 13 लाख बच्चे क्वालिफाई क्यों?

नीट 2024 का रिजल्ट व कटऑफ देखने के बाद मेरे मन में एक सहज जिज्ञासा उठी। वह कुछ आंकड़ों को लेकर थी…
उन आंकड़ों पर आप भी गौर करिए
नीट 2024 के लिए कितने स्टूडेंट्स ने रजिस्ट्रेशन किया 24,06,079
नीट 2024 की परीक्षा में कितने स्टूडेंट शामिल हुए 23,33,297
नीट 2024 में कितने उम्मीदवार अबसेंट रहे 72,782
कितने विद्यार्थियों ने नीट एग्जाम क्वालिफाई किया 13,16,268

लगभग 23 लाख बच्चों ने मेडिकल में एडमिशन के लिए नीट परीक्षा दी। नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (एनटीए) ने इनमें लगभग 13 लाख बच्चों को उत्तीर्ण घोषित किया।

भारत में वर्तमान में कुल 704 मेडिकल कॉलेज हैं। इन सभी कॉलेजों में कुल लगभग एक लाख नौ हजार एक सौ सत्तर मेडिकल सीटें हैं।अब सवाल है कि जब एक लाख से कुछ अधिक सीटें हैं तो 13 लाख से अधिक बच्चे क्यों क्वालिफाई हो रहे हैं? और जब 13 लाख क्वालिफाई हो रहे हैं और इनमें से एक लाख कुछ अधिक का ही एडमिशन होना है तो बाकी के 12 लाख पास होकर भी क्या करते हैं? इतना बड़ा गैप क्यों है?

नीट में स्टूडेंट्स 17, 19 और 23 प्रतिशत अंक लाकर भी कैसे क्वालिफाई हो जाते हैं?

मन में इस जिज्ञासा से पहले मैंने एक खबर पड़ी थी जिसका सारांश यह है कि नीट परीक्षा 720 नंबर की होती है और इस परीक्षा में 120 नंबर लाने वाला भी क्वलिफाई हो जाएगा यानी मात्र लगभग 16.67 प्रतिशत। खैर जब रिजल्ट आया तो 120 तो नहीं लेकिन 2024 में कटऑफ रहा 164 यानी 22.78 प्रतिशत।

हालांकि एक आंकड़ा यह भी है कि 2023 में यह कटऑफ 137 अंक यानी 19.03 प्रतिशत रहा। क्वालिफाई हुए 11 लाख 45 हजार से अधिक और सीटें थीं एक लाख 6 हजार 333…
और 2022 में 117 अंक कटऑफ रहा यानी 16.36 प्रतिशत अंक आ गए तो आप इस परीक्षा में पास हैं।

आप मैट्रिक, इंटर, बीए, एमए, किसी प्रोफेशनल कोर्स की परीक्षा देते हैं। उसमें यह तय होता है कि आपको कम से कम 30 प्रतिशत या 33 प्रतिशत या 45 प्रतिशत अंक आएंगें तो ही पास माने जाएंगे। नीट की परीक्षा में ऐसा क्यों नहीं है? ऐसा क्यों है कि यहां 17 प्रतिशत, 19 प्रतिशत और 22 प्रतिशत वाला भी पास हो जाता है? उपलब्ध सीटों के 11 गुना या 13 गुना विद्यार्थियों को क्यों पास किया जाता है? और जब महज लगभग 1 लाख बच्चों को ही एडमिशन मिलना है तो बाकि 10 लाख जो क्वालिफाई हुए हैं, उन बच्चों का कौन मालिक है?
इसका जवाब में अमीर बनाम गरीब की लड़ाई है। पूरा सिस्टम ऐसा बनाया गया है कि जिनके पास खूब पैसा है, उनके लिए मेडिकल की पढ़ाई सीट खरीदकर पढ़ने जैसा मामला है। और जो गरीब हैं, उनके लिए कड़ी प्रतिस्पर्धा है और उसके बाद भी वे डॉक्टरी के पेशे में नहीं आ सकते?

तो क्या सरकार ने यह सिस्टम अमीरों के समर्थन में बनाया है? गरीबों के लिए क्या है? क्योंकि 2012 तक ऑल इंडिया प्री मेडिकल टेस्ट यानी एआईपीएमटी के जरिये मेडिकल में एडमिशन होता था। 2013 में नीट यूजी की शुरुआत हुई और पहले इसका आयोजन सीबीएसई करता था। 2019 में नीट संचालन की जिम्मेदारी एनटीए को दी गई।

सरकारी मेडिकल कॉलेज में कम फीस
हम सभी जानते हैं सरकारी मेडिकल कॉलेजों में फीस कम लगती है। बहुत कम।

देश में मेडिकल की पढ़ाई 7 सेंट्रल यूनिवर्सिटी में होती है। इनमें 1180 सीटें हैं। और फीस पूरी पढ़ाई के दौरान औसतन 4 लाख रुपए से कम ही है।

देशभर में 382 सरकारी कॉलेज हैं और इनमें कुल 55225 सीटें हैं। और इसमें फीस सहित पढ़ाई का अन्य खर्च औसतन 6.20 लाख रुपए है। जिनके पास करोड़ों रुपए नहीं हैं और प्रतिभा संपन्न हैं, वे इसी 56405 सीटों के लिए फाइट करते हैं कि किसी तरह रैंक और नंबर अच्छे आ जाएं जिससे इन सीटों पर एडमिशन मिल जाए तो कम खर्च में पढ़ाई पूरी हो जाए।

तो इसका असल क्लाइमेक्स अब शुरू होता है-भारत में प्राइवेट कॉलेज से मेडिकल की पढ़ाई बहुत महंगी है। इसकी फीस और खर्च मिलाकर करोड़ों में है।

प्राइवेट मेडिकल कॉलेज में करोड़ रुपए फीस
देश में 264 प्राइवेट मेडिकल कॉलेज हैं। इन कॉलेजों में 42,515 सीटें हैं और फीस व अन्य खर्च लगभग 78.82 लाख रुपए है। इसी तरह देश में 51 डीम्ड यूनिवर्सिटी हैं जिनमें मेडिकल के लिए 10,250 सीटें हैं और इन सीटों पर एक विद्यार्थी की फीस लगभग 1 करोड़ 22 लाख है। प्राइवेट मेडिकल कॉलेज और डीम्ड यूनिवर्सिटी में कुल 52,765 मेडिकल सीटें हैं और इनमें पढ़ाई का औसतन खर्च 78 लाख से सवा करोड़ के बीच है। इन सीटों पर एडमिशन लेकर पढ़ाई का खर्च क्या कोई सामान्य परिवार का विद्यार्थी उठा सकता है? जवाब है नहीं।

इन सीटों पर देश की सिर्फ 2 प्रतिशत आबादी के अमीर लोग ही खर्च उठाने में सक्षम हैं और यही वजह है कि एनटीए 11 या 13 गुना अधिक रिजल्ट जारी करता है ताकि प्राइवेट मेडिकल कॉलेज की ये सीटें खाली न रह जाए। और 19 या 22 प्रतिशत अंक पाकर भी बच्चे का एडमिशन हो जाए। तो बाकि बच्चों के लिए क्या विकल्प बचता है?

मजबूरी में कुछ विदेश से पढ़ाई तो जिनके पास बहुत अधिक पैसा नहीं है वे मेडिकल की पढ़ाई के लिए उन देशों का रुख करते हैं जहां यह कम पैसे में हो सके। भारतीय छात्रों के लिए एमबीबीएस की पढ़ाई करने के लिए कुछ लोकप्रिय और सबसे सस्ते देश जैसे चीन, जर्मनी, किर्गिस्तान, कजाकिस्तान और बांग्लादेश आदि हैं। इन देशों में पढ़ाई और रहने का खर्च अपेक्षाकृत कम है और अधिकांश भारतीय विश्वविद्यालयों की तुलना में सस्ता है।

विदेश में एमबीबीएस की पढ़ाई करने करने के लिए भारत से बड़ी संख्या में स्टूडेंट यूएसए, यूके, जर्मनी, रूस और यूक्रेन जाते हैं। पिछले दिनों जब रूस-यूक्रेन के बीच युद्ध शुरू हुआ तो बड़ी संख्या में भारतीय छात्र यूक्रेन में फंस गए थे। रूस-यूक्रेन युद्ध के बीच ऑपरेशन गंगा के तहत भारत लाए गए 18282 भारतीय छात्रों में ज़्यादातर मेडिकल छात्र थे। अब सवाल है कि मेडिकल शिक्षा में कौन से कदम उठाएं जाएं जिससे यह स्थिति सुधरे।

तो इसका सरल जवाब है कॉलेजों की संख्या बढ़ाई जाए, सीटें बढ़ाईं जाएं। सस्ती पढ़ाई की व्यवस्था की जाए तो संभव है। अब यह पूछा जा सकता है कि इस दिशा में हो क्या रहा है?

सरकार की ओर से जारी 12 दिसंबर 2023 के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार मेडिकल कॉलेजों में 82% की बढ़ोतरी हुई है। 2014 से पहले ये 387 थीं जो बढ़कर अब 706 हो गई हैं। इसके अलावा, 112% की बढ़ोतरी के साथ एमबीबीएस सीटें 51,348 (2014) से 1,08,940 (2023) हो गईं और 127% की बढ़ोतरी के साथ पीजी सीटें 31,185 (2014) से 70,674 (2023) हो गई हैं। तो क्या ये सीटें पर्याप्त है? जवाब है नहीं।

अभी इस दिशा में बहुत काम किए जाने की जरूरत है और केंद्र को सस्ती शिक्षा और सस्ती चिकित्सा लोगों को उपलब्ध कराने के लिए एम्स जैसे विश्वसनीय संस्थान, मेडिकल कॉलेज बनाने की जरूरत है, जिससे बड़ी संख्या में युवाओं की कड़ी मेहनत सार्थक हो सके और नीट में सीटों के लिए जिस तरह से पेपर लीक की घटना सामने आई है, उस पर रोक लगाई जा सके।

यही नहीं राज्यों में जो सीटों की असमानता है और 85 प्रतिशत स्टेट कोटा है, उस असमानता को भी दूर करने की जरूरत है। जैसे बिहार में 12 करोड़ से अधिक आबादी के लिए 13 सरकारी कॉलेजों में 1550 सीटें हैं वहीं तमिलनाडु के 38 सरकारी कॉलेजों में 5250 और महाराष्ट्र के 32 कॉलेजों में 5125 सीटें हैं। तमिलनाडु की आबादी लगभग 10 करोड़ और महाराष्ट्र की आबादी साढ़े तेरह करोड़ है। ये खाई राज्य सरकारों की कमी से बनी है। जिन सरकारों ने बेहतर काम किया उन्होंने सीटें बढ़ाई, लेकिन जिन्होंने इस ओर ध्यान नहीं दिया तो आज फिसड़्डी दिख रहे हैं।

मैं सिर्फ एक उदाहरण बताता हूं, किसी रूट पर यदि एक ही ट्रेन चलती हो तो जाहिर है, उसमें अधिक भीड़ होगी, क्षमता से पांच गुना अधिक यात्री सवार होंगे। टिकटों की कालाबाजारी होगी। लेकिन यदि इंफ्रास्ट्रक्चर ऐसा हो कि वहां उसकी जगह 5 ट्रेनें चलाई जा सकें तो टिकटों की कालाबाजारी रूक जाएगी। टिकट आसानी से मिलेगा। लोगों के लिए यात्रा सुगम हो जाएगी।

मेडिकल विद्यार्थियों की यह यात्रा कब सुगम बनेगी? पढ़ाई की यह यात्रा सुगम बननी चाहिए कि नहीं?

देश को सरकारों से इस जवाब का इंतजार है!

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